जीवन का सत्य
जीवन का सत्य
सोचा था जीवन के अंतिम पल, मैं उनके साथ बिताऊंगा,
अपने नाती, पोता, पोती के, मैं जी भर लाड़ लड़ाऊंगा,
पर वक्त कहां रुक पाता है, उसको तो नित चलना है,
अब अपनों का भी स्वागत हमको, मेहमान समझकर करना है,
जीवन की इस गाड़ी में सबका स्टेशन आता है,
कोई थम जाता है चुनकर, और कोई रुक नहीं पाता है,
मेहमान बना करता था मैं भी, तब ये बात समझ ना आती थी,
पापा संग खेलने की ख्वाहिश बच्चों की, उस वक्त नजर ना आती थी,
अब रहता हूँ हर दम घर में, संग रहने को कोई तैयार नहीं,
वक्त बिताऊं कैसे बच्चों संग, अब उनको मेरा ख्याल नहीं,
जिस मोड़ पर उनको छोड़ा था, आज वहीं खुद को पाता हूँ,
मेहमान ना होकर भी अपने घर में, एक मेहमान के इंतजार में सो जाता हूँ....
