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Kumar Azad

Others

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Kumar Azad

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जीना क्या, मर जाना क्या!

जीना क्या, मर जाना क्या!

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देखकर रंज-ओ-गम दुनिया के पल पल यूं घबराना क्या,

बात करो जो वाजिब हो, फिर डरना और शर्माना क्या।

लील गया कलयुग जब अपने सारे रिश्ते नातों को,

प्यार मोहब्बत खत्म हुई अब अपना क्या बेगाना क्या।

गुजर चुका है वक्त जब सारी मेलजोल की बातों का,

मतलब के रिश्तों को तब दूर-दूर तक फैलाना क्या।

पल-पल झूठी बातों से कानो ने तौबा कर ली है,

अब भी सच कह देने क चाहिए और बहाना क्या।

जिस दौलत की कीमत में खुद खुद्दारी भी बह जाए,

ऐसी ही दौलत को भी, कह दे हम खज़ाना भी क्या।

आगोश में मेरे आकर जो तुम, भूल जाती थी जहां को ,

वो प्यार था या कहो कि था वो भी कोई अफ़साना क्या।

इश्क का दस्तूर है जब, रोज आशिक़ बदल लेना,

तो किसी हुस्न के जमाल पर जीना क्या मर जाना क्या।

बूढ़े माता-पिता को जो अपने साथ नहीं रख सकता है,

उस पूत कपूत के दुखदर्दों पर आंसू और बहाना क्या।

लेटलतीफी से पोषित, इंसाफ के हर दरवाजे को,

लात चाहिए जोरदार सी मंद मंद खटकाना क्या।

न्यायधीश जो रोज कचहरी,एतमाद का सौदा करते हैं,

गुनाह नापने को उनके, बना है कोई पैमाना क्या।

जब प्यार के बदले प्यार के मिलने की कोई उम्मीद नहीं,

ऐसे ज़ाहिल से फिर बोलो, तबीयत से दिल लगाना क्या।

जहाँ आज़ादी के परवानों पर नेता फब्ती कसते हों,

'आज़ाद' फिर उस आजादी का जश्न रोज मनाना क्या।


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