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असअद भोपाली

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असअद भोपाली

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जब ज़िंदगी सुकून से महरूम हो

जब ज़िंदगी सुकून से महरूम हो

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जब ज़िंदगी सुकून से महरूम हो गई

उन की निगाह और भी मासूम हो गई


हालात ने किसी से जुदा कर दिया मुझे

अब ज़िंदगी से ज़िंदगी महरूम हो गई


क़ल्ब ओ ज़मीर बे-हिस ओ बे-जान हो गए

दुनिया ख़ुलूस ओ दर्द से महरूम हो गई


उन की नज़र के कोई इशारे न पा सका

मेरे जुनूँ की चारों तरफ़ धूम हो गई


कुछ इस तरह से वक़्त ने लीं करवटें 'असद'

हँसती हुई निगाह भी मग़मूम हो गई


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