इन्तज़ार में मन्ज़िल
इन्तज़ार में मन्ज़िल
डर कर कांटो से तू फूल से दूर रह गया।
महरूम ख़ुश्बू से मगर रूह तेरी रह गई।।
इन्तज़ार में तेरे मन्ज़िल राह तकती रह गई।
तू ना आया ऐ मुसाफ़िर रौशनी भी ढह गई।।
इधर राह पर तू अकेले मुश्किलों से लड़ न सका।
उधर मन्ज़िल तेरे बग़ैर यक ओ तन्हा रह गई।।
इन्तज़ार में तेरे मन्ज़िल राह तकती रह गई।
तू ना आया ऐ मुसाफ़िर रौशनी भी ढह गई।।
तू क़दम बढ़ाने को हर दम सोचता रहा।
और मन्ज़िल तेरी दुआएं रब से करती रह गई।।
इन्तज़ार में तेरे मन्ज़िल राह तकती रह गई।
तू ना आया ऐ मुसाफ़िर रौशनी भी ढह गई।।
तू ने बढ़ाया न क़दम तू बैठा ही रहा।
और मन्ज़िल अपने पास तुझ को बुलाती रह गई।।
इन्तज़ार में तेरे मन्ज़िल राह तकती रह गई।
तू ना आया ऐ मुसाफ़िर रौशनी भी ढह गई।।
इधर राह पर बैठ कर तू मुश्किलें गिनता रहा।
उधर मन्ज़िल हार कर तुझको बुज़दिल कह गई।।
इन्तज़ार में तेरे मन्ज़िल राह तकती रह गई।
तू ना आया ऐ मुसाफ़िर रौशनी भी ढह गई।।
वक़्त रहते ही उठाले अपना तू पहला क़दम।
फिर न कहना ऐ रज़ा मन्ज़िल तो दूर रह गई।।
इन्तज़ार में तेरे मन्ज़िल राह तकती रह गई।
तू ना आया ऐ मुसाफ़िर रौशनी भी ढह गई।।
