गाँव और शहर
गाँव और शहर
मिट्टी का रंगीला घर
जिसे प्यार से हम सजाते ।
चौके का वो बड़ा सा आँगन
जहाँ पे बाबा खेल खिलाते ।
बांस फूस का बड़ा सा छप्पर
जो मेघों में टप-टप करता ।
मीलों पे गहरा सा कुआँ
गाँव जहाँ से पानी भरता ।
रेत के उबड़-खाबड़ दगरे
रोज वहीं खेतों को जाते ।
हर घर में हैं गइया बछिया
सुबह-शाम रोज चारा लाते ।
नहर के ऊपर बांसों का पुल
इधर-उधर जाने पे हिलता
गॉव के बाहर बड़ी सी पोखर
तैराकी से चेहरा खिलता ।
झरकटिया के मीठे बेर
दादाजी हर शाम को लाते ।
फिर प्यार से पास बिठाकर
कान्हा की लीला सुनाते ।
लंगोटियों के खेल निराले
गुल्ली-डंडा पकड़म-पकड़ाई ।
डंका-पोत में पेड़ पे चढ़ना
आगे कुआ पीछे खाई ।
चौपाल पे महफ़िल ज़माना
लेने नीम की प्यारी छाँव ।
कोयल सा “सुरीला” था
मेरा प्यार पुराना गांव ।
हाथी स
ा “मस्तीला” था
सबसे निरा "शहर"
पत्थर के अब महल बन गए
मशीन से रंग करवाते हैं।
आँगन तो अब खतम हो गया
पत्थर पे खेल खिलाते हैं।
छत के लिए हैं गाटर-सरिया
जो ना टप-टप करते हैं।
हर घर में है बिजली-पानी
कुँए अब ना दिखते हैं।
सड़क हो गयीं मन सी पत्थर
मोटर से आफिस जाते हैं।
शहरीपन अपना लिया है
डेरी से दूध मंगाते हैं।
नहर नहीं अब नाले हैं
दलदल में धसते जाते हैं।
पोखर अब सपने सी है
नमकीन पूल में नहाते हैं।
बेरों की तो बात न पूछो
दादा कोसों पे रहते हैं।
अब आयी टीवी की दुनियाँ
सब फिल्मों में बैठे हैं।
बड़े अज़ीब हैं खेल यहां के
मैदानों की ज़रूरत नहीं है।
वीडियो गेम हैं और पब-जी
हिलने की फुरसत नहीं है।
चौपालें अब खो गयी हैं
प्रदूषण का है यहां कहर।
“चीं-चीं” “पीं-पीं” आवाज़ों सा
यह है मेरा नया शहर।
बस खुद में ही “मतवालों” सा
यह है मेरा नया शहर ,कवर गांव ।