एक उम्र वो मुझ में ठहरा सा रहा
एक उम्र वो मुझ में ठहरा सा रहा

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एक उम्र भर मुझ में वो ठहरा सा रहा
बन्द आँखों में ख्वाब कोई गहरा सा रहा
ख्वाहिश थी एक दिन चाँद को छूने की
पर उस चाँद पर तारों का पहरा सा रहा
कुछ पल ही रहा मेरे पहलू में वो
वो पल मेरी ज़िंदगी का सुनहरा सा रहा
एक उम्र भर मुझ में वो ठहरा सा रहा
बन्द आँखों में ख्वाब कोई गहरा सा रहा
आरजू थी उसे दिल की पनाहों में लेने की
पर मिला जो ज़ख्म वो हरा का हरा सा रहा
आजमाता रहा मुझे वो किसी शतरंज पर ऐसे
जैसे मैं उसके लिए बस एक मोहरा सा रहा
एक उम्र भर मुझ में वो ठहरा सा रहा
बन्द आँखों में ख्वाब कोई गहरा सा रहा।।