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दूसरों की औरतें

दूसरों की औरतें

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कितनी लज़्ज़तदार हैं ये दूसरों की औरतें,

मोड़ की दीवार हैं ये दूसरों की औरतें ।


फिर रहीं सज-धझ सँवर कर या यूँ ही सादा कहीं,

टकटकी बाँधों, निहारो, और धुएँ में छोड़ दो,

इक से दिल भरने लगे तो दूसरी पर मोड़ दो,

आँख गाड़ो, उँगलियों से छू के अच्छे से पढ़ो,

मुफ़्त का अख़बार हैं ये दूसरों की औरतें।


क्या ज़रूरत है इन्हें की शौक पाले और जियें,

इत्र ओढ़े, ख़्वाब देखें, मुस्कुराए, मय पियें,

जो भी ये करती ना करती है बुलावा और क्या,

बिन पते का तार है ये दूसरों की औरतें ।


इनकी अस्मत, इनकी ख्वाहिश, इनके दिल की चाहतें,

इनकी दिक़्क़त और उन सब दिक़्क़तों की राहतें,

कौन सोचें और अपनें वक़्त को ज़ाया करे,

सर पे बेज़ा बार है ये दूसरों की औरतें ।


चुटखियाँ लेते रहो तुम देख कर और सोच कर,

बाँट खाओ इनको चौराहों पे पूरा नोंच कर,

बोटी-बोटी, माशा-माशा, तोला-तोला, सेर-सेर,

माँस का ब्यौपार है ये दुसरों की औरतें ।


रूह क्या है, दिल है क्या, क्या है ज़हन, क्या जान है,

क्या वजूद-ए-ग़ैर की औरत है, क्या पहचान है,

जीन्स टी-शर्ट, साड़ियाँ हैं, टॉप-बॉटम, सूट और,

रेशमी सलवार है ये, दूसरों की औरतें ।


घर बचाओ, ढाँक कर रक्खो, सहेजो, ध्यान दो,

अपनें घर की औरतों को ख़ाब दो इमकान दो,

उनकी अस्मत, अपनी अस्मत है सो उनका साथ दो,

इस जहाँ को वो लगें हैं, दूसरों की औरतें।

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