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Vivek Tariyal

Others

5.0  

Vivek Tariyal

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दिन बीते लम्हें गुज़रे

दिन बीते लम्हें गुज़रे

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दिन चढ़के सूरज उतरा फिर चंदा नभ चमका गया,

जीवन तरंग भी उठी गिरी और संग समय चलता गया,

मैं खड़ा देखता रहा लिए यादों के घड़े को हाथों में,

दिन बीते लम्हें गुज़रे और क्षण अंतिम था आ गया।


दृग् नीर बहा उन यादों पर मन बारंबार दहकता है,

स्वप्नों में उसे पाने को व्यथित हो हृदय बहकता है,

अंतिम आलिंगन देने को चाहा उठना तब शिथिल पड़ा,

छाने लगा तम आँखों में यम पाश जकड़ता चला गया,

दिन बीते लम्हें गुज़रे और क्षण अंतिम था आ गया।


चाहा अधरों ने कुछ कहना साथ न देते थे अक्षर,

मौन पड़े चाहा देना उनको जज़्बाती हस्ताक्षर,

कसक रह गई अभिव्यक्ति में आजीवन कह पाए नहीं,

समय भी क्षण भर को ठहरा फिर राह मोड़ता चला गया,

दिन बीते लम्हें गुज़रे और क्षण अंतिम था आ गया।


भावों के भवसागर में ले रहा हिलोरें व्याकुल मन,

अपनों के भविष्य को लेकर चिंता से था आकुल मन,

जिनके स्वप्नों को पूरा करने लेकर विश्वास चला,

आज उन्हीं अपनों को मैं मझधार छोड़ता चला गया,

दिन बीते लम्हें गुज़रे और क्षण अंतिम था आ गया।


पंचतत्वो से बना शरीर फिर इनमें मिल जाएगा,

रह जाएँगे यादें बनकर काम अमर हो जाएगा,

इस शरीर का साथ छोड़ निकला जब अगली मंज़िल को,

मुड़कर देखा एक बार फिर हाथ जोड़ता चला गया,

दिन बीते लम्हें गुज़रे और क्षण अंतिम था आ गया।


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