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दीवार के आर पार

दीवार के आर पार

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रिश्तों में खिंच गई ऐसी दीवार ।
पड़ोस वाली भाभी नहीं भेजती अचार।

बच्चे नहीं खींचते अब काका के कान।
बहुत दूर हो गया पास का मकान।
साथ जो थे जीमते अब खाते खार।
पड़ोस वाली भाभी नहीं भेजती अचार।

आते नहीं अब शक्कर- साँझी के बुलव्वे।
प्रीत को नोच गऐ डाह के ये कव्वे।
पराये से लगते हैं सगे अब त्यौहार ।
पड़ोस वाली भाभी नहीं भेजती अचार।

उठी हुई भीत के इस पार उस पार।
बहती थी प्रीत की इक सावनी बयार ।
मन हुऐ जेठ-से ये लू के भंडार ।
पड़ोस वाली भाभी नहीं भेजती आचार।

हँस-हँस कर होती थीं कभी लोट-पोट।
देवरानी - जिठानी में पड़ गई अब खोट।
नफ़रत के चाकर हैं प्रेम के कहार ।
पड़ोस वाली भाभी नहीं भेजती अचार ।
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