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Rahul Rajesh

Others

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Rahul Rajesh

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चिट्ठियाँ

चिट्ठियाँ

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बचपन में चिट्ठी का मतलब

स्कूल में हिंदी की परीक्षा में

पिता या मित्र को पत्र लिखना भर था

चंद अंकों का हर बार पूछा जाने वाला सवाल

आदरणीय पिताजी से शुरू होकर अंत में

सादर चरण-स्पर्श पर समाप्त हो जाता हमारा उत्तर

कागज़ की दाहिनी तरफ दिनांक और स्थान लिखकर

मुफ्त में दो अंक झटक लेने का अभ्यास मात्र

 

गर्मी की छुट्टियों में हॉस्टल से घर आते वक्त

हमें चिट्ठियों से बतियाने की सूझी एकबारगी

सुंदर लिखावटों में पहली-पहली बार हमने संजोए पते

फोन-नंबर कौन कहे, पिनकोड याद रखना भी तब मुश्किल

न्यू ईयर के ग्रीटिंग कार्डों से बढ़ते हुए

पोस्टकार्डों, लिफाफों, अंतरदेशियों का

शुरू हुआ जो सिलसिला

चढ़ा परवान हमारे पहले-पहले प्यार का हरकारा बन

 

मां-बाबूजी या दोस्तों के ख़तों के

इंतज़ार से ज़्यादा गाढ़ा होता गया प्रेम-पत्रों का इंतज़ार

यह इंतज़ार इतना मादक कि

हम रोज़ बाट जोहते डाकिए की

दुनिया में प्रेमिका के बाद वही लगता सबसे प्यारा

 

मैं ठीक हूँ से शुरू होकर

आशा है आपसब सकुशल होंगे पर

खत्म हो जाती चिट्ठियों से शुरू होकर

बीस-बीस पन्नों तक में समाने वाले प्रेम-पत्रों तक

चिट्ठियों ने बना ली हमारे जीवन में

सबसे अहम, सबसे आत्मीय जगह

जितनी बेसब्री से इंतज़ार रहता चिट्ठियों के आने का

उससे कहीं अधिक जतन और प्यार से संजोकर

हम रखते चिट्ठियाँ,

अपने घर, अपने कमरे में सबसे सुरक्षित,

सबसे गोपनीय जगह उनके लिए ढूँढ़ निकालते

बाकी ख़तों को बार-बार पढ़ें पढ़ें

प्रेम-पत्रों को छिप-छिपकर बार-बार, कई-कई बार पढ़ते

 

हमारे जवां होते प्यार की गवाह बनती ये चिट्ठियाँ

पहुँची वहाँ-वहाँ, जहाँ-जहाँ हम पहुँचे भविष्य की तलाश में

नगर-नगर, डगर-डगर भटके हम

और नगर-नगर, डगर-डगर हमें ढूँढ़ती आईं चिट्ठियाँ

बदलते पतों के संग-संग दर्ज होती गईं उनमें

दरकते घर की दरारें, बहनों के ब्याह की चिंताएँ

और अभी-अभी बियायी गाय की खुशखबरी भी

संघर्ष की तपिश में कुम्हलाते सपनीले हर्फ़

ज़िंदगी का ककहरा कहने लगे

सिर्फ हिम्मत हारने की दुहाई नहीं,

विद्रोह का बिगुल भी बनीं चिट्ठियाँ

 

इंदिरा-नेहरू के पत्र ही ऐतिहासिक नहीं केवल

हम बाप-बेटे के संवाद भी नायाब इन चिट्ठियों में

जिसमें बीस बरस के बेटे ने लिखा पचास पार के पिता को-

आप तनिक भी बूढ़े नहीं हुए हैं

अस्सी पार का आदमी भी शून्य से उठकर

चूम सकता है ऊँचाइयाँ

 

आज जब बरसों बाद उलट-पुलट रहा हूँ इन चिट्ठियों को

मानो, छू रहा हूँ जादू की पोटली कोई

गुजरा वक्त लौट आया है

खर्च हो गई ज़िंदगी लौट आई है

भूले-बिसरे चेहरे लौट आए हैं

बाहें बरबस फैल गई हैं

गला भर आया है

ऐसा लग रहा, ये पोटली ही मेरे जीवन की असली कमाई

इसे संभालना मुझे आखिरी दम तक

इनमें बंद मेरे जीवन के क्षण जितने दुर्लभ

दुर्लभ उतनी ही इन हर्फ़ों की खुशबू

 

जैसे दादी की संदूक में अब भी सुरक्षित दादा की चिट्ठियाँ

मैं भी बचाऊंगा इन चिट्ठियों को वक्त की मार से

एसएमएस-ईमेल, फेसबुक-ट्वीटर-वाट्सऐप के इस मायावी दौर में

सब एक-दूसरे के टच में, पर इन चिट्ठियों के स्पर्श से

महसूस हो रहा कुछ अलग ही रोमांच, अलग ही अपनापा

 

की-बोर्ड पर नाचने की आदी हो गई ऊंगलियों की ही नहीं,

टूट रही यांत्रिक जड़ता जीवन की भी।


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