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छत की मुंडेर पे

छत की मुंडेर पे

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कुछ दिये हमने जलाये
हर्ष और उल्लास में
समृद्धि की आस में
दीपावली की बेर पे
छत की मुंडेर पे
 

 

कुछ दिये रोज़ जलते हैं
और बुझ जाते हैं
कभी बालुओं की ढेर पे
कभी हिमालय की उचेर पे
कभी सरहदों की मेड़ पे
ताकि यूँ ही जलते रहें
हर साल दिये
छत की मुंडेर पे

 

कुछ दिये हर मौसम में जलते हैं
खटते हैं
और खो देते हैं कभी खुद को
कभी थोड़े अनाज की ढेर पे
कभी सूखे खेतों की मेड़ पे
कभी बारिशों की हेर में
ताकि यूँ ही जलते रहें
हर साल दिये
छत की मुंडेर पे


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