बरखा!
बरखा!
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ख़ाली तुम मत रखना झोली
प्यासी आज धरा ये बोली
इन्द्र ने ख़ुद पे नाज़ किया
तब बरखा का आग़ाज़ किया
बूँदों से है छटा निराली
सौंधी ख़ुशबू है मतवाली
डाली डाली पंछी चहके
ऋतुराज का दिल भी बहके
मस्त पवन ने आज पुकारा
बरखा का है रूप निखारा
रंग बिरंगी छतरी संग भीगे
काग़ज़ की कश्ती संग भीगे
झूमे कुछ इठलाकर भीगे
मस्ती में बलखाकर भीगे
बच्चे बूढ़े-जन भी भीगे
थोड़ा अहसासों संग जी लें
कुछ तो मस्त पलों संग जी लें।।
