STORYMIRROR

Ashish Aggarwal

Others

4  

Ashish Aggarwal

Others

बलात्कार के ख़िलाफ एक रचना

बलात्कार के ख़िलाफ एक रचना

1 min
28K


 

कैसे ना भरोसा उठे उसका फ़ितरत-ऐ-इन्सान1 से,

सभी फूल चुरा ले गया हो कोई जिस गुलिस्तान2 से।

क्यों आदमी ज़मीर-इन्सानियत-ख़ुदा सब भूल जाता,

क्यों हवस हैवान बना देती इन्सान को इन्सान से।

 

ज़ालिम ज़माना ज़हमत3 की ज़ंजीरों में कैद कर देता,

निकलना मुश्किल हो जाता इस घुटन भरे तूफ़ान से।

क्यों हवस हैवान बना देती इन्सान को इन्सान से...

 

ख़ुदकुशी4 के ख्याल बार-२ ज़हन में दस्तक देने लगते,

सोचती रहती बेचारी कैसे जिये अब जिंदगी शान से।

क्यों हवस हैवान बना देती इन्सान को इन्सान से...

 

घर वाले बेइज्ज़ती के डर से इस कशमकश5 में बैठे हैं,

कि कानून से जाकर शिकायत करें या करें भगवान से।

क्यों हवस हैवान बना देती इन्सान को इन्सान से...

 

लाखों अरमान थे जो दुल्हन बनने के वो फ़िक्र में हैं,

कि कौन शादी करेगा इस फूलों के बिना फूलदान से।

क्यों हवस हैवान बना देती इन्सान को इन्सान से...

 

सिमट कर रह जाती बची ज़िन्दगी उन लम्हों में अशीश,

कोई ना गुज़रे मेरे मौला बेआबरू के बुरे इम्तिहान से।

क्यों हवस हैवान बना देती इन्सान को इन्सान से...

 

1.human nature 2.garden 3.uneasiness of mind

4.suicide 5.dilemna


Rate this content
Log in