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डॉ. वीरेन्द्र प्रताप सिंह 'भ्रमर'

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डॉ. वीरेन्द्र प्रताप सिंह 'भ्रमर'

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भेद सके मेरा कब चिंतन

भेद सके मेरा कब चिंतन

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पेट प्रताड़ित क्षुधा-ज्वाल से

वस्त्र नहीं हैं ढकने को तन।

जीवन के टेढ़े-मेढ़े पथ,

भेद सके मेरा कब चिंतन।

सुख-दुख स्वत: एक मृगतृष्णा,

नहीं सम्पदा से है नाता ।

अन्तर्मन जब करे ठिठोली,

दैन्य कहाँ भीतर रुक पाता।

नहीं डिगा पाये हैं मुझको,

आशाओं के ये काले घन।

जीवन के टेढ़े-मेढ़े पथ,

भेद सके मेरा कब चिंतन।।

हर गरीब निज तन ढ़कने को,

दिखता भले यहाँ हो चिंतित।

श्वेत दंत की पंक्ति बताती,

चिंता नहीं हमें है किंचित।।

जीवन जीना एक कला है,

फिर मानव क्यों करता क्रंदन।

जीवन के टेढ़े-मेढ़े पथ,

भेद सके मेरा कब चिंतन।।

नग्न पुत्र को पृष्ठभाग में,

रख अल्हड़ता इठलाती है।

प्रासादों में हँसी कदाचित्

ऐसी हमको दिख पाती है।।

नयनों के सँग अधर हँसें जब,

'भ्रमर'झलकता है अपनापन।

जीवन के टेढ़े-मेढ़े पथ,

भेद सके मेरा कब चिंतन।।



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