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Sonu Saini

Others

5.0  

Sonu Saini

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अरबात का सहन, बुलात अकुद्जावा

अरबात का सहन, बुलात अकुद्जावा

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गुज़र रहे हैं मौसम मेरे गीतों की तरह

निहार तो रहा ही हूँ तेरे संसार को मैं 

तंग बहुत है यहाँ सहन में जगह

रुख़सत लिए जा रहा हूँ यहाँ से मैं ।


न ही ये दौलत न कुछ मान

सफ़र में मेरे मैं चाहता हूँ,

बस अरबात का ये तंग सहन

समेट लिए जाना चाहता हूँ ।


सफ़र की वो छोटी पोटली

कोने में रखा वो एक थैला,

पीर की तरह ताकता वो सहन

है मेरी तरह बिन दाग न मैला ।


कभी सख़्त तो कभी नर्म हूँ मैं, 

और क्या चाहिए ज़िन्दगी में

कुछ भी तो नहीं

बस आँगन की इन गर्म दीवारों 

पर हाथ तो सेक ही लूँगा ।


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