Pooja Agrawal

Drama

5.0  

Pooja Agrawal

Drama

उत्थान बाल विवाह

उत्थान बाल विवाह

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330


दरवाजे पर दस्तक हुई,अहिल्या को आभास हो गया था, कि मास्टर जी आए होंगे, पर उसके कदम वहीं रुक गए, माताजी ने मना किया था उसको दरवाजे किसी भी आगुंतक के लिए खोलने के लिए। 

ओटक में से झांका तो मां कह रही थी, "तुमको पता नहीं क्या पड़ी है ? संध्या हुई नहीं हो मास्टरजी मुंह उठाकर चले आते हैं, विधवा है वो, कुछ तो समझा करो।"

 "हां ठीक है, अपनी बच्ची की स्थिति को देखकर उनके कलेजे पर सांप लोट जाते थे।

 ठाकुर साहब यूं तो धर्म-कर्म को मानते थे पर उन्हें रूढ़ीवादी कुर्तियां समझ में नहीं आती थी। समाज के दबाव से उन्होंने अपनी सुपुत्री अहिल्या का विवाह बाली उम्र में ही कर दिया था। परंतु गौना नहीं हुआ था, वह उन्हीं के साथ रहती थी। 

अहिल्या, दो लड़कों के बाद उनकी सबसे छोटी लड़की थी, पढ़ाई लिखाई का शौक था उसको,पर लड़कियों का पढ़ना तो दूर घर से बाहर निकलना भी धर्म के बाहर था। आशा भरी निगाहों से पिताजी की तरफ ताकती तो उनको मजबूरन उन्होंने उसको स्लेट और बत्ती पकड़ा दी।

शाम को कचहरी से आते समय अक्सर पढ़ाया करते थे, अहिल्या को। अहिल्या की जिज्ञासा और लगन के आगे वह नतमस्तक थे। उनकी अहिल्या को गुड़िया गुड्डे से खेलने में कदापि रुचि नही थी,वह पढ़ लिखकर अपने पिताजी की तरह वकील बनना चाहती थी। 

अभी विवाह को समय ही ना हुआ था कि कुछ महीनों में ठाकुर जी के दामाद की अकस्मात मृत्यु हो गई। वह प्लेग की चपेट में आ गए थे। पति पत्नी के हृदय पर वज्रपात हो गया था। अहिल्या की रंग बिरंगी चूड़ियां, माथे से लाली, रंग बिरंगे कपड़े कब उसकी भेंट चढ़ गए उसको आभास भी ना हुआ।सफेद साड़ी में लिपटी अहिल्या को उसकी ताई अंधेरी सी कोठरी में ले गई थी कुछ जरूरी सामान के साथ,

 "छोरी, अब तू यही रहेगी, यही तेरा घर है।

जैसे तैसे रुखा, सुखा बिन मसाले का भोजन ग्रहण करके जब वह अपने पिताजी की तरफ देखती मूक निगाहों से तो वह आंख नीची करके खिसक लेते। 

ठाकुर साहब" राजा राम मोहन रॉय "से सम्मोहित और उनकी ओजस्वी और समाज सुधारक धारणाएं उनको आकर्षित करती थी। 

अंग्रेजों की "ईस्ट इंडिया कंपनी "जो पहले व्यवसाय हेतु बनी थी ने अपनी सशक्त सेना तैयार कर ली थी।पूरे देश में व्यापक आंदोलन चल रहे थे, बंगाल भी उससे अछूता नहीं था प्लासी के युद्ध से ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी। 

राजा राम मोहन रॉय ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करते थे उनके और पढ़े-लिखे स्वतंत्र विचारधारा वाले लोगों को यद्यपि अंग्रेजों की नीतियां पसंद नहीं थी परंतु वह पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित थे।

सती प्रथा, बाल विवाह, पर्दादारी के खिलाफ उन्होंने ब्रह्मो समाज की स्थापना की थी।सबसे बड़ा आघात उन्हें तब लगा था जब उन्होंने अपनी भाभी को "सती" के नाम पर अग्नि में उनके भाई के सबके साथ साथ जिंदा जलते देखा था। 

यह दकियानूसी और रूढ़िवादी कुरीतियां समाज को पनपने नहीं दे रही थीं, और राजा राम मोहन रॉय चाहते थे कि इन दो संस्कृतियों का समन्वय हो जाए। यद्यपि धर्म के लोग उनके विरुद्ध थे।

 राजा राम मोहन रॉय की सभाएं और गोष्ठियों में अक्सर ठाकुर जी भाग लेते थे। अपनी बेटी का मासूम चेहरा उनकी आंखों के आगे झूलता रहता था, और यही कारण था कि वह चाहते थे कि बाल विवाह पर रोक लगे, और नन्ही विधवाओं पुनर्विवाह हो सके। 

१८५७ के विद्रोह के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी बर्खास्त कर दी गई थी अंग्रेजी सरकार ने, और अब भारत पर शासन का अधिकार महारानी "विक्टोरिया" के हाथों में आ गया था।

 बैठक से मां की आवाज आ रही थी," अहिल्या मास्टर साहब आ गए हैं" 

अहिल्या अपनी खुशी को छुपाते हुए कापी, किताब लेकर बैठक में आ गई, छोटा भाई साथ में ही पढ़ता था, "इसको भी कुछ सिखा दीजिए" मां कहती हुई चली जाती, वह जानती थी मां जानबूझकर ऐसा करती है मास्टर साहब का शांत सरल स्वभाव, और उनकी वेशभूषा अहिल्या को खूब भाती थी। 

धीरे-धीरे समय बीत रहा था। अहिल्या बड़ी हो रही थी। उसके कटीले नैन, गुलाबी होंठ, कंधे तक फैले हुए केष, किसी को भी सम्मोहित कर सकते थे। बिना साज श्रृंगार के उसके चेहरे पर गजब का तेज था। उसकी सादगी उसके रूप में चार चांद लगाती थी मास्टर साहब बड़े मन अपने मन को संभाल कर बैठ जाते थे, वह कब उसकी तरफ खींचे चले जा रहे थे, यह उन्हें खुद ही ज्ञात ना था।

 मास्टर साहब की भावनाएं उस से छुपी नहीं थी अहिल्या से, कई बार पढ़ते हुए उसने उनको अपलक निहारते हुए पकड़ा था।नजरें टकराती थी और वो नीचे करनी कर लेते थे।

" मास्टर साहब कहां खो गए " 

"कुछ नहीं।"मास्टर साहब का जवाब होता था। 

मास्टर साहब बिना नागा रोज संध्या को आते थे,वरना वह अपनी अहिल्या को कैसे देख पाते।

अब तो अहिल्या को भी उनसे प्रेम हो गया था उनका व्यक्तित्व, उसको उनकी तरफ खींचने में पूर्ण सफल था। अक्सर मास्टर साहब का हाथ अकस्मात उसको छू जाता था, तो उसके शरीर में बिजली सी कौंध जाती थी। 

धीरे-धीरे आंखों में ही इजहार हो चुका था परंतु उनके इस अफसाने का क्या हश्र होगा यह सोचकर दोनों की रूह कांप जाती थी।

 एक तरफ तो ठाकुर साहब समाज सुधारक कार्यों और राजा राम मोहन रॉय की सभाएं जो कि स्त्रियों के उद्धार और उनके उत्थान के लिंए थी, में सक्रिय योगदान दे रहे थे वहीं दूसरी तरफ उनकी अहिल्या प्रेम महोपाश मैं पड़ चुकी थी।

मास्टर साहब को पूर्ण आभास था कि उनका प्रेम समाज और परिवार को स्वीकृत नहीं होगा, परंतु वह ठाकुर साहब के विचारों को जानते थे इसलिए एक दिन बड़ी हिम्मत जुटाकर मास्टर साहब को अपने मन की दशा बता दी। 

"ठाकुर साहब, आप मुझे गलत ना समझे, अगर आप मना कर देंगे तो मैं आपसे फिर आग्रह ना करूंगा परंतु आप की स्वीकृति मेरे लिए सर्वोपरि है, मैं यहां से दूर चला जाऊंगा और फिर आपको अपना चेहरा भी नहीं दिखाऊंगा। 

मैं बस आपसे यह आशा करता हूं आप आप सोच समझकर ही किसी परिणाम पर पहुंचे मैं आपका जीवन भर ऋणी रहूंगा।" पूरे आवेक से कह गए थे मास्टरजी। 

ठाकुर साहब मूर्ति बनकर सुनते रहे, एक तरफ तो उनको अहिल्या के लिए खुशी थी पर दूसरी तरफ वह इसके परिणाम से खुद भयभीत थे। 

पूरी रात उन्होंने सोचाविचारी में निकाल दी। 

फिर जैसे उनको ईश्वर का आदेश हुआ हो, "जब मैं इन कुरीतियों को जड़ से समाप्त करना चाहता हूं, तो मैं इनका खुद पालन करने से क्यों व्यथित हो रहा हूं। अगर मैं खुद इनको नहीं अपना लूंगा तो यह समाज क्या मुझ पर सवालिया दृष्टि नहीं उठाएगा, क्या मेरा अंतर्मन मुझे कचौटेगा नहीं"।

 सवेरा हो चुका था। और उनके मन का अंधेरा भी छट चुका था। उनका मन प्रफुल्लित था कि अब विधवा विवाह की शुरुआत उनके कर कमलों से होगी।


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