कार्यकुशलता और परिश्रम
कार्यकुशलता और परिश्रम
अपने छोटानागपुर, संथाल परगना और पलामू के प्रवास के दौरान बराबर आदि वासी जनजातियों संथाल, मुंडा, उराँव, सोरेन आदि के सम्पर्क में आना हुआ। उनकी कड़ी मेहनत ,परिश्रम व स्वच्छता को बहुत नज़दीक से देखा।
दुमका की वह संथाली बालिका नहीं भूलती जो हमारे घर काम करने आई थी। हमारे आवास के पीछे ऑंगन था बड़ा सा जो चहारदीवारी से घिरा था। ऑंगन कच्चा था। गर्मियों में वहॉं खुले में सोने के काम आता था। वहॉं सोने पर आसमान में तारे देखते, सप्तर्षि देखते ,ध्रुवतारा खोजते और खुले आकाश के नीचे सोने का आनन्द उठाते।
उस संथाल कन्या ने वह ऑंगन बुहारकर साफ़ तो किया ही, उसने गाय के गोबर से उस पूरे ऑंगन को इतनी सुघड़ता से लीपा कि हम देखते रह गये। पूरा ऑंगन इतना दमक रहा था कि हम पहिचान नहीं पाये कि वही ऑंगन है। इतनी तेज़ी से उसके हाथ लयात्मक रूप में चल रहे थे कि देखते ही बनता था। बहुत सुन्दर लिपाई थी। उसकी कार्यकुशलता के क़ायल हो गये। वह हिन्दी थोड़ा बहुत समझ लेती थी, कुछ संकेतों से समझ जाती थी।
कुछ संथाल बहुत निर्धन भी थे , यह हमें पता नहीं था। एक प्रौढ़ा संथाल स्त्री मेरी बिटिया की देखभाल के लिये आई थी। जब वह आई तो उसके दूसरे दिन हमने उससे कहा-“ नहाकर कपड़े बदल लो। “ तो वह बोली-
“ मेरे पास दूसरी साड़ी नहीं है। “
मैंने पूछा-“ गॉंव में क्या करती थी। “
उसने कहा-“ दोपहर में जोहड़ में नहाते थे, जब वहॉं कोई नहीं होता था। तब साड़ी धोकर किनारे पर सूखने डाल देते थे। जब तक नहाकर आते थे, साड़ी सूख जाती थी और हम पहन लेते थे। “
उसकी बात सुनकर उनकी लाचारी का परिचय मिला। घोर दरिद्रता में वह रह रही थी। हमने उसे साड़ी ब्लाउज़ दिया। उसकी भीषण निर्धनता और कठिन जीवन की कहानी हमारे लिये एकदम नई थी। हमें नहीं पता था कि इतनी ग़रीबी में भी लोग गुज़ारा करते हैं।
घर का अन्य काम करने के लिये एक और संथाल प्रौढ़ा महिला थी। लगता था कि वह शायद इतनी निर्धन नहीं थी। एक दिन वह हमसे बोली-“ एक लड़की है हमारी, उसकी शादी करनी है उसे गॉंव में छोड़कर आई हूँ, गॉंव में खेती होती है।”
फिर वह हमारे से पूछने लगी-“ आपके कितने खेत हैं ?”
हम क्या कहते! दिल्ली जैसी जगह में जहॉं फ़्लैट में लोग रहते हैं, वहॉं खेत और गाय बैल कहॉं ?
वह हमसे कहने लगी-“ जिसके जितने ज़्यादा खेत होते हैं वहीं हमारे यहॉं बड़ा कहलाता है। जिसके जितने खेत वह उतना ही बड़ा। “
उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि हमारे कोई खेत नहीं तो हम बड़े कैसे हुए। वह छुट्टी मॉंग रही थी गॉंव जाने के लिये लड़की की शादी के लिये।
मैंने उससे कहा-“ शादी में पैसों की ज़रूरत पड़ेगी, कुछ दिन और नौकरी कर लो। “
उसने थोड़े अभिमान से कहा -“ हम क्यों खर्चा करेंगे ? हमारी लड़की के लिये लड़के वाले ही हमें गाय, बैल या बकरी देंगे। हमें लड़की को कुछ नहीं देना पड़ता। लड़के के यहॉं से ही मेरे लिये साड़ी बुनकर आयेगी , नई साड़ी मुझे मिलेगी”।उसे छुट्टी तो दी ही, साथ ही पता चला वे लोग कला कौशल में निपुण होते हैं।
हमारी जानकारी बढ़ी। संथालों में दहेज नहीं है। लड़का लड़की दोनों समान है, दोनों के जन्म पर आनन्द मनाया जाता है। बल्कि लड़की का आदर ज़्यादा है। लड़के वाले ही कन्या शुल्क देते हैं। कन्या ज़्यादा काम करती है। खेती से लेकर बाज़ार हाट और घर का काम वही करती है। खड्डे पर साड़ी बुनकर तैयार की जाती है और इसमें कांफी समय लगता है।
दुमका, राँची, खूँटी, तोरपा सभी जगह हफ़्ते में एक दिन हाट लगता है। सभी आदिवासी अपनी- अपनी बनाई चीज़ें और उपज बेचने आते हैं और ज़रूरी सामान ख़रीदकर ले जाते हैं। हमने भी एकदिन हाट में जाकर देखा था। और सामान के अलावा वहॉं खड्डे पर बुनी हुई सुन्दर दरियाँ थी। हमने भी नीले और लाल रंग की दो सुन्दर दरियाँ ली ।वे लाल सफ़ेद और नीले सफ़ेद धागों से बुनी हुई थीं। वे आज तक अच्छी चल रहीं हैं उनका रंग न निकला , न फीका पड़ा।बार- बार धुलकर भी चमक नहीं गई। हस्त कौशल व दस्तकारी का अच्छा नमूना हैं।
आदिवासियों की मेहनत परिश्रम व कला से हम प्रभावित तो हुए ही। नृत्य एवं गान में भी वे निपुण हैं। जल जंगल और प्रकृति से ताल मेल मिलाकर चलते हैं। हमारे एक सहयोगी के छोटे भाई संथाल तरुणियों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने एक संथाल तरुणी से शादी रचा ली, जबकि वे एक आई . ए.एस. अफ़सर हैं और उन्हें रिश्तों की कोई कमी नहीं थी।
एक बार वे हमसे अपनी संथाल पत्नी व बच्चों के साथ मिलने आए। तीन बहुत ख़ूबसूरत गोरे चिट्टे स्वस्थ बच्चे थे। जब वे कार से उतरे तो बच्चों के साथ एकबारगी तो कृष्णवर्णा आदिवासी महिला को देख समझ नहीं पाये कि ये कौन हैं। बाद में पता चला कि वही मेम साहब हैं।
यह अच्छा संकेत था आदिवासी भी समाज में समान स्तर पर घुलमिल रहे थे।और मुख्य धारा के अंग बन रहे थे।
