आत्मविश्वास
आत्मविश्वास
उत्तराखंड के चमोली ज़िले में दूर पहाड़ों पर बसा एक छोटा सा गॉंव। पहाड़ी जीवन। कठोर परिश्रम से भरा। वहाँ की आदिवासी जनजाति आस-पास के जंगलों में बसती थी, अब गॉंवों में आकर भी बसने लगी है। झोंपड़ी या पत्थरों से घर बने लेते हैं,जिसके ऊपर छत छाते हैं जिसे पाथर कहते हैं। ऐसे ही एक बनरावत जनजाति में एक कन्या ने जन्म लिया। कैशोर्य में पॉंव भी नहीं रखा था कि शादी कर दी गई। बाल - विवाह की प्रथा थी।
शादी होकर ससुराल में आई , छोटी उम्र में ही गर्भवती हो गई। प्रसव हुआ पर वह शिशु कन्या जीवित नहीं रही। इसके बाद भी प्रसव होते रहे और उन्नीस वर्ष की अल्पायु में ही वह तीन और बच्चों की मॉं बन गई। दो लड़के और एक लड़की। अकेले ही सबको सँभालना पड़ा, क्योंकि पति जीविका की खोज में बंगलौर चला गया और वहॉं युकलिप्टस की लकड़ी की फ़ैक्ट्री में काम करने लगा। पर नियति यहीं नहीं रुकी, उसके पति को वहॉं किसी ने गोली मार दी, घायल हो गया, घर लाया गया, उपचार हुआ, पर वह बच नहीं पाया, साल भर के अन्दर परलोक सिधार गया। पुलिस केस हुआ था पर मारने वाला पकड़ा नहीं जा सका। उसकी पत्नी पर पहाड़ टूट पड़ा। बीस वर्ष की अल्पायु में पति को खो दिया। घर में कोई कमाने खिलाने वाला नहीं रहा। ससुर ने कुछ खर्चा पानी किया। पर वह कब तक करता।
तीन बच्चों का बोझ और केवल बीस वर्ष की उम्र। पूरी ज़िन्दगी सामने पड़ी थी और तीन बच्चों का साथ। उसके दो देवर थे। एक की शादी हो गई थी। दूसरे की अभी नहीं हुई थी। ससुर ने कहा कि छोटे देवर के घर बैठ जा, उससे शादी कर ले। पर उस सद्य विधवा ने मना कर दिया।देवर को बेटे की तरह देखा था, उसे पति कैसे मान ले ? उसने अपने बल पर ही ज़िन्दगी चलाने की ठान ली।
उसके पति के हिस्से के कुछ खेत थे। उसी में उसने काम शुरू कर दिया। तीन- तीन छोटे बच्चे गोद में थे, वे कुछ मदद नहीं कर सकते थे। पर उसने साहस नहीं खोया। आत्मविश्वास से अकेले ही काम शुरू कर दिया। कठिन परिश्रम किया। सुबह चार- पॉंच बजे उठकर जंगल जाकर घास काटी, दो बैलों और एक गाय के लिये।सिर पर घास की गठरी लाई। फिर गाय व बैल के लिये सानी करी। पानी भरने दूर जाना पड़ता था। तब तक घर में नल नहीं आये थे। बहुत बाद में सरकारी नल आये। जंगल से लकड़ी काटकर पीठ पर लादकर घर लाती थी जलावन के लिये। बच्चों के लिये खाना बनाती थी। बुरॉंश वृक्ष की लकड़ी की आग देर तक रहती थी। बुरॉंश के फूल गोल- गोल गुलाबी रंग के होते थे। मधुमक्खी उन फूलों में शहद भर देती थी। बुरॉंश के फूल बच्चे चाव से शहद के लिये चूसते थे। बुरॉंश के फूलों का जूस बना लिया जाता था, चटनी भी बना ली जाती थी। जनवरी फ़रवरी में बुरॉंश में कलियॉं आ जाती थीं , मार्च अप्रैल में फूल आ जाते थे। सब जगह धरती बुरॉंश के फूलों से सौन्दर्यमंडित हो जाती थी। बुरॉंश को उत्तराखंड में राजकीय वृक्ष का दर्जा हासिल है। उसने अकेले ही खेती की , हल बैल चलाकर। धान,सोयाबीन की बेल, काला भट्ट, ,गहत की बेल बरसात में बोयी।सितम्बर अक्टूबर में कटाई की। नवम्बर - दिसम्बर में मसूर, जौ, गेहूँ, मटर बोया और अप्रैल में इनकी कटाई की। बच्चे छोटे थे तो सारा काम खुद किया। दोनों लड़के थोड़े बड़े हुए तो हल बैल चलाकर खेत में मदद करने लगे। बच्चे भी शुरू से परिश्रमी बने। तीनों बच्चों को गॉंव के स्कूल में पढ़ने भेजा। घर की उपज से ही बच्चों का पालन पोषण किया। गाय का दूध घर में इस्तेमाल किया, कभी बिक्री भी की। इस तरह परिश्रम से घर चलाया।
चमोली के देवाल ब्लाक में जून जुलाई में अमर शहीद सैनिक मेला लगता है क्योंकि प्रथम द्वितीय विश्व युद्ध में और बाद में भी यहॉंके बहुत सैनिक मारे गये थे। सैनिकों का शौर्य तो सबको पता है , पर घर में रहकर जो कठोर परिश्रम जनजाति की महिला करती हैं और सुयोग्य परिश्रमी भावी पीढ़ी तैयार करती हैं, वह अनदेखा ही रह जाता है।
अकेले दम पर घर की देखभाल करना, खेती करना, गौ- बैल का पालन करना ,घास काटना, पानी लाना, और छोटे बच्चों की देखभाल करना, ये सब परिश्रम से भरे कार्य हैं और बहुत साहस संयम व आत्म विश्वास मॉंगते हैं। उस अनामा जनजाति की महिला के उद्यम को मेरा बहुत-बहुत अभिनन्दन , जो सबके लिये एक मिसाल है और प्रेरणाप्रद है।
