ख्वाहिशें
ख्वाहिशें
कितने उलझे मसले हैं यह हजारों ख्वाहिशें!
मानव की खुद के मन की हर दिन नई फ़रमाइशें।
खिलौने की दुकानों से सारे खिलौने का दाम पूछना,
मेघधनुषी रंगों को हर बचकाने सपनों में बुनना।
ज़मीं पर पैर जड़ा कर, पंख पहन आसमान को छूना,
माशूका के बालों में सजाने अलभ्य तारों को ही चुनना।
कितने उलझे मसले हैं यह हजारों ख्वाहिशें !!
मानव की खुद के मन की हरदिन नई फ़रमाइशें।
शादी की शहनाई में ही बच्चे की किलकारी को सुनना,
नन्हे पैरों के मधुर स्वर में, आने वाले कल का झूमना ।
पाठशाला के परिणामों में, सुनहरे भविष्य का उभरना,
पदवियों के कागज़ों से सरकारी नौकरियों का ढूंढना।
कितने उलझे मसले हैं यह हजारों ख्वाहिशें!
मानव की खुद के मन की हर दिन नई फ़रमाइशें।
शाम हुई, सूरज डूबा, परछाईं छुपी, छुपी सब ख्वाहिशें,
आईने में अक्स दिखा धुँधला, धुँधली दिखी हर ख्वाहिशें।