आखिर कहाँ चली गई तुम .....
आखिर कहाँ चली गई तुम .....
हज़ारों बहानें ढूँढ लिए है
खुद को तुझसे जोड़ने के लिए।
तेरा सामान रखता और उठाता हूँ
फ़िर शाम तक वो जगह भूल जाता हूँ।
तेरी तस्वीर भी साथ रखता हूँ
आईना देखते समय
धुंधली नज़रों से तुझे सँवारता हूँ।
बिखरती धूप के हर कोने को
सिमटकर चाँदनी बनते देख
हर कोने में फिरता हूँ ढूँढता हूँ
कितना खोजता है मेरा उदास मन
तेरी एक झलक पाने को वो तस्वीर।
हँसती लाल सुर्ख रंग की वो चूनर
अब तस्वीर में भी मटमैली हो गई होगी,
काले तिल वाले गोरे गालों पर ना जाने
कितनी उदासियाँ पसरी होंगी,
मेहंदी लगा इतराता हाथ
झुर्रियों से भर गया होगा।
नन्हें पाँव की थिरकन महसूस होती थी
तुम्हारे पेट पर कभी
इक उम्र का सफ़र तय कर चुके होंगे।
पुरानी डायरी भी उबासी लेकर सो गई
पीले ज़र्द पन्नों के साथ पूछते हुए,
जब हर जगह मौजूद हो तुम
तो क्यों नहीं दिखाई देती
मेरी इन मोटी लैंस की ऐनक
के पीछे झाँकती पुतलियों को
आखिर कहाँ चली गई तुम।