अलविदा
अलविदा
कल्ब ये इंतज़ार करता था
उस संध्या के आगमन का,
जब फोन की घंटी बजती थी
आपसी गुफ्त़गू के लिए ।
अफ़साने की शुरुआत बड़ी हसीन थी
क्योंकि आदिल अत्फ़ का खुमार चढ़ा था,
छोटी-छोटी बातों में खुर्रम होने लगे और
बिन वज़ह चेहरे पर तबस्सुम रहती।
एक दिन वे जाते-जाते
खत मेरे लिए छोड़ गए
कसम खाते थे जो हरदम साथ रहने की
वे वक़्त- ए-गर्दिश में 'अलविदा!' कह गए ।
खता हमारी कोई बताएँ
क्यों ख़फा वे हमसे हो गए ?
एहतियाज थी जब बेहद उनकी
न जाने कहाँ वे खो गए?
अश्फ़ाके जिसके जीते थे
वे हयात की हक़ीक़त बता गए -
' कोई किसी का नहीं होता
वक़्त-ए-गर्दिश में '।
शामें सुनी लगने लगी
सब कुछ तब्दील सा गया,
जो मुस्कुराहट रहती थी बेवजह
न जाने कहाँ गुमगश्ता हो गई।
अंधेरा कर मेरी दुनिया में
न जान कौन देश गए चले?
आब-ए-चश्म की बरसात कर
आखिर 'अलविदा!'वे कह गए ।
अकेला रहकर जिदंगी में
एक आसरा मिल गया
जो ज़ेर को तब्दील कर
क़ाबिल बना गया ।
इतफ़ाक से एक दिन
उनकी मुक़ाबिल मुलाक़ात हुई हमसे
जो तशरीह देने लगे
अपने 'अलविदा!' कहने के पीछे की हक़ीक़त की।
हमारे अल्फाज़ ये थे कि-
" अंतर नहीं है महल और कुटिया में
इसलिए हर कोई शहरयार नहीं होता ,
वक़्त सबका आता है
यूँ ही कोई महान नहीं होता ।"
वे अपने किए पर सिर धुनने लगे
हम अजनबी समझकर चले आए,
पिनहां सच्चाई से वाकिफ़ तो हम
पहले ही हो गए थे
परंतु 'अलविदा!' की हक़ीक़त की
झूठी तशरीह भी कमाल की बनाई उन्होंने ।
*शब्दकोष:
कल्ब: दिल; गुफ्त़गू: बातचीत;
अफसाना: कहानी; आदिल:सच्चा;
अत्फ़: प्रेम; तबस्सुम : मुस्कुराहट;
एहतियाज: आवश्यकता;
अश्फ़ाक: सहारा;
गुमगश्ता:खोना;
आब-ए-चश्म : आँसू;
ज़ेर: कमजोर;
मुक़ाबिल:सम्मुख;
तशरीह: व्याख्या;
शहरयार: राजा;
पिनहां: छुपी*