स्वाधीनता उत्सव : आओ हाथ बढ़ाऐं हम भी
स्वाधीनता उत्सव : आओ हाथ बढ़ाऐं हम भी
'वो' उनके स्वभाव से जीते हैं
'तुम' अपने स्वभाव से जीते हो
'हम' अपने स्वभाव से जीते हैं
कोई एक रेखा ऐसी भी होती है
जो इन तीनों के स्वभाव से गुज़रती है
तब सबके स्वभाव से "स्व" विलीन हो जाता है
केवल भाव रह जाता है
इस भाव से ही जुडी हैं सारी भावनाऐं
सारी जिज्ञासाऐं, सारी जुगुप्साऐंं
इसी भाव से पृथ्वी पर भार है
और वो हमें अंतरिक्ष में खोने नहीं देती
नहीं बनने देती ब्रह्माण्ड का
कोई खोया तारा, उल्कापिंड या ग्रह
इस भार से तुम
ख़ुद को इतना भारी मत कर लो
कि ख़ुद के अस्तित्व के नीचे ही दब जाओ
फिर भी सारी हल्की बातों में इतना
वज़न ज़रूर रखना
कि जब भी हम उस इकलौती रेखा के संगम पर मिलें
तो अपने अपने स्व पर ठहरे हुऐ भी
एक दूसरे का हाथ पकड़ने के लिऐ
बस हाथ बढ़ाने तक की दूरी हो
जिस दिन हम एक दूसरे के हाथ से निकल जाऐंगे
तो खो जाऐंगे
इस विशाल ब्रह्माण्ड में
फिर कोई हमें भी खोजता रहेगा
जैसे आज कोई खोजता है मंगल पर जीवन
इससे पहले कि हम एलियन कहलाऐं
आओ हम पूरे पूरे मनुष्य बन जाऐं