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shivam patro

Others

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shivam patro

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तड़प रही थी दोस्त मेरी

तड़प रही थी दोस्त मेरी

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तड़प रही थी उसकी उँगलियाँ

सुलझाने में गांठ इस ज़माने की

उलझे थे उसके चाँद और सितारे

उस ज़हर के झाग में

पानी सुखा रहे थे जिस समय उसके आसूं

ठंडी पड़ रही थी उसकी सांसें

उस समय गरीबी के आग में

सुबह के अँधेरे में नवाज़ीर थी वो

अंधे हम थे, हर जगह हाज़िर थी वो

अपने घोंसले में मौजूद होने के बावजूद भी

खुद के दिल के लिए मुहाजिर थी वो


उकेरना चाहती थी जो अपनी ज़िंदगी को

पिरो कर कोरे कागज पर

जीतना सीखा ही न था जिसने अभी तक

हर दिया उसको पतझड़ के दाग ने

लहलहा रहीं थीं जहां बाकी हायतें

मुरझाई पड़ी थी वो इसी लंबी भाग में


हर दर्द को छिपा कर खुद को रुलाई थी वो

सनी थी गंदे समाज से, मगर फिर भी सुहाई थी वो

उठाकर सबके दुआओं को खुद के पलकों पर

किसी के भी लफ़्ज़ों पर ना दुहाई थी वो


आज भी जब गुज़रा हुँ, उसी राह से मैं

अटकी थी आज भी उसी गांठ में वो

उलझे थे उसके सपने उसी ज़हर के झाग में

जहां पानी सूखा रहै थे उसके आसूं और बना रहे थे दाग

और ठंडी पड़ रही थी वो

उसी गरीबी की आग में

उसी गरीबी की आग में ।










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