शिलाएं भी रिसती हैं क्या ?
शिलाएं भी रिसती हैं क्या ?
वो कह रहा था, दोहन धरती का
कर रहा था वार लगातार
उसकी छाती पर।
वार सहते-सहते, जो निकलती थोड़ी सी आह
याद दिलाता, उसे, तुम धरती हो
सहनशील, दाता हो
दु:ख तकलीफ सहकर भी हमेशा खिली रहो
अपनी तकलीफ़ किसी से ना कहो
पर धरती दरक रही थी, सिसक रही थी
तो कहा उसने, ऐसा करो
तुम शिला बन जाओ
शिला होती है पत्थर, जिसमें नहीं होतीं
भावनाएं, नहीं होता जीवन
धरती शिला बन गई,
निश्चिंत होकर, करने लगा
वह ज्यादा वार – लगातार
शिला तो रोएगी भी नहीं।
सोच रही थी, शिला, ये कैसा जीवन
कल शरीर ही नहीं, आत्मा पर
चोट खाकर भी रोना वर्जित
आंसू जो निकल गए
कहा जाएगा, त्रिया चरित्र
सोचा था, शिला बनकर, नहीं रोएगी वह
नहीं असर होगा, किसी चोट का,
पर ग़लत थी वह,
शिला के नीचे से भी
नमकीन सा सोता रिस रहा था,
जो दूसरी शिला तक पहुंच रहा था,
उसे बताया दूसरी शिला ने, ...आंसुओं का
स्वाद है इसमें
दूसरी शिला से भी कुछ खारा पानी रिस रहा था
जो उस तक पहुंच रहा था
दोनों शिलाओं के सीने में प्रश्न लहराया
समवेत स्वर में दोनों ने स्वर उपजाया
शिलाएँ भी रिसती हैं क्या
अब और क्या बनें, ताकि न रिसे
भीतर से कोई नमकीन पानीआंसुओं को पीते हुए,प्रश्न ये उपज रहा था
भीतर दोनों के शिलाएँ भी रिसती हैं क्या?