ज़्यादा आसान क्या है?
ज़्यादा आसान क्या है?
लेखिका: वलेन्तीना असेयेवा
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
तीन लड़के घूमते हुए जंगल में गए. जंगल में थे मश्रूम्स, बेरीज़, पंछी. लड़के देर तक घूमते रहे. उन्हें पता ही नहीं चला कि कब दिन गुज़र गया. घर की ओर जा रहें – डर रहे हैं:
“घर पे हमें डांट पड़ेगी!”
वे रास्ते में रुक गये और सोचने लगे कि क्या ज़्यादा अच्छा रहेगा – झूठ बोलना या सच बता देना?
“मैं कहूँगा,” पहले लड़के ने कहा, “कि जंगल में मुझ पर भेड़िये ने हमला कर दिया. बाप डर जायेगा और नहीं डाँटेगा,”
“मैं कहूँगा,” दूसरा बोला, “कि दद्दू मिल गये थे. माँ ख़ुश हो जायेगी और मुझे नहीं डाँटेगी.”
“मगर मैं तो सच बात कहूँगा,” तीसरे ने कहा, “सच बोलना हमेशा ज़्यादा आसान होता है, क्योंकि वह सच होता है, और कुछ भी सोचने की ज़रूरत नहीं होती.”
वे अपने-अपने घर चले गये. मगर जैसे ही पहले लड़के ने बाप को भेड़िये के बारे में बताया – देखा कि जंगल का चौकीदार आ रहा है.
उसने कहा कि इस जगह पर भेड़िये हैं ही नहीं.
बाप गुस्सा हुआ. पहली गलती पर तो गुस्सा हुआ मगर झूठ बोलने के लिये – उससे भी दुगुना.
दूसरे लड़के ने दद्दू के बारे में बताया. मगर दद्दू तो वहीं है – उन्हीं से मिलने आ रहे हैं,
माँ को सच का पता चल गया. पहली गलती के लिये गुस्सा हुई, मगर झूठ बोलने के लिये – उससे भी दुगुना.
और तीसरे लड़का जैसे ही घर पहुँचा, उसने देहलीज़ पर ही अपनी गलती स्वीकार कर ली. चाची उस पर थोड़ा-सा गुर्राई और उसे माफ़ कर दिया.