व्यवहारिक वर्तन
व्यवहारिक वर्तन
फूलों के हार किसी इंसान को जीते जी मिले ना मिले, गंगाजल का अधिकारी अपने समस्त जीवन काल में इंसान बने ना बने, पर मृत्यु के बाद ये सब उसको मिलता है। समाज जीवित मनुष्य के कर्मों का हिसाब लगाता है, जिसमें बुरे कर्म हमेशा अधिक होते हैं। पर मृत्यु के पश्चात, सिर्फ अच्छे कर्मों का बोल-बाला होता है।
ये कोई रीत है या चेष्टा ये समझना इतना मुश्किल नहीं।
अपने पुण्य का घड़ा भरने हेतु बारी बारी से कन्धा देते हैं लोग, पर जब आवश्यकता होती है उसकी जीवन काल में, समय की मर्यादा बताई जाती है। क्यों फिर ऐसे समाज की प्रशंसा की जाए जो कहने को तो मौजूद है पर होता नहीं।
मेरे विचार में स्पष्ट वक्ता होना हर दौर में इंसान को गुनहगार बनाता रहा है। शायद में भी हूँ। क्यूँकि कुछ रीती-रीवाज़ों के ख़िलाफ़ बोला तो बहिष्कृत हो गया। और भी हैं।
भेड़-बकरियों की तरह सदियों से चलता ये समाज, कभी कौतूहल युक्त समाज बन नहीं पाया। क्यूँकि आँखों पर, कुछ ऐसी पट्टियाँ बांध दी गई जो अभी उतर नहीं पाई हैं और ऐसे समाज में जुड़े रहने बेहतर है अपनी दुनिया बसा लेना, जहाँ स्वागत सबका होता है, आलिंगन दिया जाता है, स्मित बांटा जाता है।
पर नियम सिर्फ एक है। सबको सामान समझा जाता है। परिणाम ये, कि उस दुनिया मैं हम जैसे, माला के मनको पर गिने जा सके उतने ही लोग होंगे।
सआदत हसन मंटो
ने कहीं कहा था -
मैं ऐसे समाज पर हज़ार लानत भेजता हूं, जहां उसूल हो कि मरने के बाद हर शख्स के किरदार को लॉन्ड्री में भेज दिया जाए जहां से वो धुल-धुलाकर आए ।
