वांडरर
वांडरर
नन्हा शिखर, समुद्र तट पर रेत से महल बना रहा था। जैसे ही वह द्वार बनाता, महल गिर जाता। शिखर पुनः निर्माण की कोशिश करता ।
मेहता साहब उसके जुनून को देख रहे थे। उससे बोले "बेटा!थोड़ा पानी के करीब बनाओ, जहां रेत में थोड़ी नमी हो।"
शिखर की आंखों में चमक आ गयी। अंकल! वहां मेरा महल बन जाएगा?
मेहता साहब ने कहा," जरूर"।
शिखर थोड़ा समुद्र के करीब अपने निर्माण में जुट गया। इस बार उसका महल और उसमे द्वार भी बन गया।
शिखर ने आवाज दी "अंकल देखिए मेरा महल।"
मेहता साहब टहलते हुए थोडी दूर चले गए थे। वो एक खाली बैग में समुद्र के किनारे पड़ी पॉलीथीन और प्लास्टिक को एकत्रित कर रहे थे। शिखर उन्हें देख रहा था, उसने उन्हें फिर पुकारा तो वो जल्दी से उसके पास आ गए।
वाह ! क्या मस्त महल बनाया है।
तुमने तो दिल खुश कर दिया।
प्रंशसा सुन शिखर का मन, उत्साह से भर गया।
अंकल आप इस बैग में यहां का कूड़ा क्यों इकट्ठा करते हैं? मै तो सीप और शंख ढूंढता हूं और आप कूड़ा।
शिखर बहुत जिज्ञासु हो रहा था और मेहता साहब को उसके प्रश्न अच्छे लग रहे थे।
आप क्या करते हैं अंकल ? एक नया प्रश्न पूछा तो वो मुस्करा पड़े।
मैं आर्किटेक्ट हूं और अहमदाबाद में रहता हूं, जब भी यहां होता हूं तो सागर तट पर जरूर आता हूं।
लेकिन अंकल ये बैग और कूड़ा ? शिखर ने फिर अपनी जिज्ञासा रखी।
बेटा, समुद्र तट तब तक साफ होते हैं जब तक इंसान यहां नहीं आता या समुद्र इंसान की दी हुई चीज तट पर वापस नहीं दे जाता। कई बार हम लोगो द्वारा छोड़ी हुई प्लास्टिक की वस्तुएं लहरों के साथ समुद्र में चली जाती है। यदि कोई प्राणी उसे भोजन समझ खा लेता है तो वह बीमार हो जाता है। वहां डॉक्टर तो होता नहीं है अतः उसको बहुत परेशानी होती है।
ओह! शिखर शांत हो कुछ सोचने लगा।
अंकल ! फिर तो मछली, कछुए, ऑक्टोपस, व्हेल सबको परेशानी होती होगी ?
हां, पक्षिओं समेत समुद्र से जुड़े समस्त जीव जंतुओं को परेशानी होती है। मेहता साहब ने समझाया।
पक्षिओं को क्यों अंकल ?
मेहता साहब ने घड़ी देखी और शिखर से कहा "अभी देर हो गई है, कल सुबह मिलते है, यहीं पर। मैं तुमको एक कहानी सुनाऊंगा और तुम सब समझ जाओगे।"
ठीक है अंकल, मैं सुबह आपकी प्रतीक्षा करूंगा। पर आप आइएगा जरूर।
हां बेटा जरूर, उन्होंने मुस्करा कर कहा।
अगले दिन शिखर, सुबह जल्दी ही सागर तट पर आ गया था। आज वो एक पतंग और डोर लेकर आया था। पतंग बड़ी थी, और शीतल हवा चल रही थी। पूर्व में सूर्योदय हो रहा था, सूर्य की लालिमा सागर की लहरों को नई आभा दे रही थी। दूर एक नौका लहरों के साथ जा रही थी, उस पर बैठे मछुआरे कोई गीत गा रहे थे। शिखर को सब बहुत अच्छा लग रहा था। वो पतंग को जैसे ही लेकर थोड़ी दूर दौड़ा, पतंग हवा से बातें करने लगी।
थोड़ी देर में मेहता साहब आ गए, अपने बैग के साथ।
गुड मॉर्निंग बेटा !
तुम्हारी पतंग तो बड़ी शानदार है। क्या ये कपड़े की बनी है? उन्होंने शिखर से पूछा।
नमस्ते अंकल !
हां ये पतंग, पापा बाली से लाए थे मेरे लिए। आपने आज कहानी सुनाने के लिए प्रॉमिस किया था।
अच्छा चलो, वहां बैठते हैं फिर मैं कहानी सुनाऊंगा। मेहता साहब बोले।
शिखर ने अपनी पतंग पास पड़े एक पत्थर से बांध दी और एक बेंच पर जा कर दोनों बैठ गए।
हां तो सुनो, मेहता साहब ने कहा......
दक्षिणी गोलार्ध के प्रशांत महासागर में बहुत सारे लेसान एलबेस्ट्रास पक्षी रहते हैं।
शिखर,! ये समुद्री पक्षी बहुत सुंदर होते हैं, धवल शीर्ष, पीत रंग की वृहद चोंच, गुलाबी रंग के पैर, श्यामल नयन और विशाल पंख। लेसान एलबेस्ट्रास रात में समुद्र तट या समुद्र में अपना भोजन तलाशते हैं। कोई भी तैरती मछली या चमकती वस्तु इन्हे आकर्षित करती है और उसे ये भोजन समझ कर खा लेते हैं। इनको विश्वास होता है कि प्रकृति या समुद्र इन्हे जो देगा वो इनके लिए अच्छा ही होगा।
इनमे एक युवा एलबेस्ट्रास जिसका नाम "वांडरर" था, वो बहुत उत्साही और साहसी था। उसकी उम्र लगभग सात वर्ष की थी। वांडरर ने सात साल का समय प्रशांत महासागर में और खुले आसमान में ही बिताया था।
वांडरर की दिली इच्छा अपनी जन्मभूमि को देखने की थी, उसे अपने लिए एक जीवन संगिनी की भी तलाश थी। उसी वर्ष सितम्बर माह में वांडरर ने अपने अनेकों साथियों के साथ उस द्वीप के लिए उड़ान भरी, जहां वो सभी जन्मे थे। एक अत्यंत लंबी यात्रा होने के बावजूद वांडरर बहुत खुश था। वो अपने आठ फिट लंबे पंखों को फैलाए नीले सागर के ऊपर खुले आसमान में उडा चला जा रहा था। उड़ते उड़ते ही हवा में वो सब अपनी नींद भी पूरी कर लेते और समुद्र के करीब आकर फ्लाइंग फिश को अपना भोजन बना लेते। कभी सूनसान द्वीप पर उतरते तो अपने पंखों को संवारते। न जाने कितनी नदियों, द्वीपों को पार करने के बाद वांडरर का दल अपने जन्म द्वीप के नीले गगन में था।
वाह! इतना सुंदर! कोरल रीफ से घिरा नीला लगून।
वांडरर उड़ते हुए ही उस द्वीप को निहार रहा था।
" मिडवे एटॉल"!
ऐसा स्थान जहां केवल प्रकृति का राज और मनुष्य दूर दूर तक नहीं। हां, युद्ध के स्मारक मानव सभ्यता की कहानी जरूर सुना रहे थे।
"मिडवे एटॉल" उन जंतुओं का घर जिनमें हवा में दूर तक उड़ने या पानी में तैर कर आने का हौसला और शक्ति हो। पूरा द्वीप वांडरर जैसे पक्षियों से भरा हुआ था। उल्लासपूर्ण वातावरण में हर आने वाले का स्वागत था।
वांडरर और उसका दल द्वीप पर उतर रहा था, सब मंत्रमुग्ध थे। वांडरर ने उतरते ही, अपने पंखों और पैरो में लगी मिट्टी को पानी में जा कर साफ किया। जल में अपने प्रतिबिंब को निहारा और आसमान की ओर गर्दन को उठा कर एक जोरदार नाद किया।
वांडरर, द्वीप पर अपने दल की ओर जा ही रहा था कि अचानक फ़ीवी नाम की लेसान ने उसको रोक लिया। नृत्य का निमंत्रण था, वांडरर के लिए। वांडरर ने फ़ीवी को निहारा और फिर उसकी आंखो के पास अपनी चोंच से छुआ। फ़ीवी उसे भा गई थी। उसने गर्दन को आसमान की तरफ उठा कर अपनी मधुर स्वीकृति दे दी। दोनों ने अपनी विशाल चोंच को बजा कर एक लयात्मक संगीत का सृजन किया फिर एक अदभुत नृत्य आरम्भ हुआ। पूरे द्वीप में अनेक नव युगल इसी तरह नृत्य कर रहे थे। नृत्य में पच्चीस भाव भंगिमाएं थी। मधुर कलरव से पूरा द्वीप गुंजायमान था। वांडरर और फ़ीवी अब जीवन भर के लिए एक दूसरे को समर्पित हो गए थे।
कुछ दिनों बाद वांडरर, घास और तिनकों से घोसला बना रहा था। फ़ीवी, उसके प्रेम को देख भावुक हो रही थी। वांडरर हर काम में उसकी सहमति अवश्य लेता और फिर कोई गीत गाता।
जब नीड़ में नवांगतुक का आगमन हुआ तो वह श्वेत शेल आवरण में सुरक्षित था। फीवी ने दो दिनों तक उसको अपने शरीर से चिपका कर रखा फिर तीन हफ्तों के लिए वह लंबी यात्रा पर चली गई। ऐसा पूरे द्वीप के घोसलों में हो रहा था, माताएं दो दिन के बाद भोजन के तलाश में जा चुकी थी और पिताओं पर बड़ी जिम्मेदारी थी।
वांडरर को कई दिन हो गए थे, बिना कुछ खाए। धूप, बारिश, हवा तूफ़ान सब को सहते वो अपने घोसले को छोड़ कर कहीं भी नहीं गया था। लगभग तीन हफ्ते बाद फ़ीवी लौट आई। फिर कुछ दिन बाद शेवाल कवच को तोड कर नन्हा बच्चा बाहर निकला। सारे ही घोसलों से खुशखबरी आ रही थी, उस नीले लगून पर उत्सव मनया जा रहा था, "जीवन उत्सव"। वांडरर और फ़ीवी भी बहुत आनंदित थे।
अब सारे माता पिता बारी बारी से दूर तक उड़ कर जाते और बच्चों के लिए फ्लाइंग फिश, स्क्विड और सुंदर दिखने वाले खाने के समान को लाते। मां बाप अपने द्वारा पचाए खाने को ही नवजात को खिलाते।
परन्तु एक दिन मानव समाज में, खबर आयी कि कई लेसान एलबेस्ट्रास और नन्हे बच्चो की आसमयिक मृत्यु हो रही है। जांच के लिए एक विशेषज्ञ दल वहां भेजा गया। उस दल ने पाया कि अधिकांश मृत पक्षिओ के पेट प्लास्टिक के टुकड़ों, टूथ ब्रश, कंघी, कोल्डड्रिंक की शीशी के ढक्कनों से भरे थे। छोटे बच्चो के पेट में भी यही सब मिला।
शिखर दुःखी हो गया।
फिर उसने पूछा - "अंकल वांडरर का क्या हुआ ?"
मेहता साहब बोले- वांडरर और उसका परिवार ठीक था। कुछ महीनों की देख भाल के बाद उनका बेबी थोड़ा बड़ा हो गया। अब वांडरर और फ़ीवी को विश्वास था कि प्रकृति उनके बच्चे की देख भाल कर लेगी । उसके बेबी को भी विश्वास था कि वो अपनी देख-भाल खुद कर लेगा और उड़ना भी स्वयं सीख लेगा।
एक दिन वांडरर, फ़ीवी और अन्य लेसान अपने बच्चो को प्रकृति को सौंपकर, अपने स्थान की और उड़ गए।
अब द्वीप पर केवल बच्चे थे। सब साथ रहते, खेलते , गाते अपने पंखों को फैलाते और खुद भोजन का प्रबंध कर लेते। जब उनके पंखों में शक्ति आ गई तो वो खुद उड़ने की कोशिश करने लगे। कभी गिरते - कभी उड़ते। उन्होंने समुद्र की लहरों से गिर कर उठना सीखा था। अब उनमें उत्साह और आत्मविश्वास जाग उठा था।
एक दिन तेज हवा चल रही थी, सारे बच्चे तट पर आ गए। उन्होंने ने पहले अपने पेट में एकत्रित भोजन को वमन द्वारा मुख से बाहर निकाला। उसमे भी बहुत सारी मात्रा में प्लास्टिक के टुकड़े थे जिसे उन्होंने भोजन समझ कर खा लिया था। बच्चे अपने पंखों को पूरा फैलाकर हवा के साथ दौड़े और उड़ गए एक अनजान जगह की ओर।
बहुत से बच्चे उड़ नहीं पाए और उनकी तट पर ही मृत्यु हो गई। शोध में पता चला कि उनके पेट में ज्यादा प्लास्टिक थी और वो बीमार थे। वहां के पुराने भवनों में किए गए रंग - रोगन में मिला लेड भी इनके स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक था।
बेटा ! अब तुम समझ गए होगे कि मैं क्यों समुद्र तट को साफ करने की कोशिश करता हूं।
अंकल ! अब मैं भी समुद्र का ख्याल रखूंगा और सबको जागरूक करूंगा, शिखर दृढ़ता से बोला।
मेहता साहब ने शिखर से कहा कभी मौका मिले तो क्रिस जॉर्डन की मूवी "एलबेस्ट्रास" देखना। विकिपीडिया पर भी बहुत सी जानकारी है।
फिर मेहता साहब, बैग लेकर तट की और चल पड़े....।