उल्लू
उल्लू


दद्दू बैठे हैं, चाय पी रहे हैं। काली चाय नहीं पी रहे हैं – दूध से उसे सफ़ेद बनाके पी रहे हैं। पास से गुज़रता है उल्लू।
“नमस्ते,” उसने कहा “दोस्त !”
मगर दद्दू बोले:
”तू, उल्लू – बौड़म सिर, बाहर निकले कान, हुक जैसी नाक। तू सूरज से छिपता है, लोगों से दूर भागता है, - मैं तेरा दोस्त कैसे हो गया?
उल्लू को गुस्सा आ गया।
“ठीक है,” उसने कहा, “बुढ़ऊ! मैं रात को तेरी चरागाह पे नहीं उडूँगा, चूहे नहीं पकडूँगा – ख़ुद ही पकड़ लेना।”
मगर दद्दू ने कहा:
“डरा भी रहा है, तो किस बात से! भाग जा, जब तक सही-सलामत है।”
उल्लू उड़ गया, बलूत में छुप गया, अपने कोटर से बाहर हीं नहीं उड़ा। रात हुई। दद्दू की चरागाह में चूहे अपने बिलों में चीं-चीं कर रहे हैं, बातें कर रहे हैं:
“देख तो, प्यारी, कहीं उल्लू तो नहीं आ रहा है- बौड़म सिर, बाहर निकले कान, हुक जैसी नाक?
चुहिया ने चूहे को जवाब दिया:
“उल्लू कहीं नज़र नहीं आ रहा, उसकी आहट भी नहीं सुनाई देती। आज तो हमारे लिए मैदान साफ़ है, हमारे लिए पूरा चरागाह खुला है।”
चूहे उछलकर बिलों से बाहर आए, चूहे चरागाह पे भागे।
और उल्लू अपने कोटर से बोला:
“हा, हा, हा, बुढ़ऊ! देख, कहीं सत्यानाश न हो जाए: चूहे तो यूँ घूम रहे हैं, जैसे शिकार पे निकले हों।”
“तो, घूमने दे,” दद्दू ने कहा। “चूहे कोई भेड़िए थोड़े ही हैं, वे बछड़ों को नहीं मारेंगे।”
चूहे चरागाह में धमा-चौकड़ी मचाते हैं, मोटी मक्खियों के घोंसले ढूँढ़ते हैं, ज़मीन खोद डालते हैं, मक्खियों को पकड़ते हैं।
और उल्लू कोटर से कहता है:
“हो,हो,हो, बुढ़ऊ! देख, कहीं सत्यानाश न हो जाए: तेरी सारी मोटी मक्खियाँ उड़ गईं।”
”उड़ने दे,” दद्दू ने कहा। “उनसे क्या फ़ायदा है: ना शहद, ना मोम – सिर्फ सूजन होती है।”
चरागाह में थी फूलों वाली छोटी घास, बालियाँ ज़मीन पर झुकी थीं, मगर मोटी मक्खियाँ भिनभिनाती हैं, सीधे चरागाह से आती हैं, घास की ओर देखती भी नहीं हैं, एक फूल का पराग दूसरे पर नहीं ले जाती।
उल्लू कोटर से बोला:
”हो,हो,हो, बुढ़ऊ! देख, कहीं सत्यानाश न हो जाए: कहीं तुझे ख़ुद को ही पराग एक फूल से दूसरे फूल पर न ले जाना पड़े।”
“हवा ले जाएगी,” दद्दू ने कहा और अपना सिर खुजाने लगा।
चरागाह में हवा बहती है, पराग ज़मीन पर बिखेरती है। पराग एक फूल से दूसरे फूल पर नहीं गिरता – चरागाह में फूलों वाली घास नहीं उगती, दद्दू के लिए यह अनपेक्षित था।
मगर उल्लू कोटर से बोला:
“हो,हो,हो, बुढ़ऊ! तेरी गाय रंभा रही है, घास माँग रही है, - बिना बीजों और फूलों की घास तो बिना घी के दलिये के समान है।”
दद्दू चुप रहा, कुछ भी नहीं बोला।
फूलों वाली घास से गाय तन्दुरुस्त थी, अब गाय दुबली हो गई, दूध कम देती है, दूध पतला देती है।
और, उल्लू कोटर से बोला:
“हो,हो,हो, बुढ़ऊ! मैंने तो तुझसे कहा था: तू नाक रगड़ते हुए मेरे पास आएगा।”
दद्दू गालियाँ देने लगा, मगर बात बन ही नहीं रही थी। उल्लू बैठा है बलूत के कोटर में, चूहे नहीं पकड़ता।
चूहे चरागाह को तहस-नहस करते हैं, मोटी मक्खियों के घोंसले बर्बाद करते हैं। मक्खियाँ दूसरों की चरागाह पर उड़ रही हैं, दद्दू के चरागाह की ओर झाँकती भी नहीं हैं,। फूलों वाली घास चरागाह में उगती नहीं। बिना उस घास के गाय दुबली होती है। गाय का दूध भी हो गया पतला। चाय में डालने के लिए दद्दू के पास कुछ बचा ही नहीं।
चाय में डालने के लिए दद्दू के पास कुछ बचा ही नहीं – चला दद्दू उल्लू को सलाम करने।
“तू भी ना, प्यारे– दुलारे उल्लू, बुरा मान गया। मुझे इस मुसीबत से निकाल। मुझ बूढ़े पास चाय में डालने के लिए कुछ बचा ही नहीं।”
उल्लू अपने कोटर से देखता है – आँखें फ़ड़फड़ाके, पैर टपटपाके।
“ये ही तो,” वह बोला, “बुढ़ऊ। दोस्ती कभी बोझ नहीं होती, चाहे दूरियाँ ही क्यों न हो! तू सोचता है कि मुझे तेरे चूहों के बगैर अच्छा लगता था?”
उल्लू ने दद्दू को माफ़ कर दिया, वो कोटर से बाहर आया, चूहे पकड़ने चरागाह की ओर उड़ा।
चूहे डर के मारे अपने-अपने बिलों में दुबक गए।
मोटी मक्खियाँ चरागाह के ऊपर भिनभिनाने लगीं, एक फूल से दूसरे फूल पर उड़कर जाने लगीं।
लाल-लाल फूलों वाली घास चरागाह पर फैलने लगी।
गाय चली चरागाह घास खाने।
गाय देने लगी खूब सारा दूध।
दद्दू डालने लगा चाय में बहुत सारा दूध, लगा उल्लू की करने तारीफ़, बुलाने लगा उसे अपने घर, देने लगा बड़ा भाव।