सिर्योझा - 8
सिर्योझा - 8
परदादी बीमार हो गई, उसे अस्पताल ले गए। दो दिन तक सब कहते रहे कि जाकर उसे देखना चाहिए, और तीसरे दिन जब घर में सिर्फ सिर्योझा और पाशा बुआ थे, नास्त्या दादी आ गई। वह हमेशा से भी ज़्यादा तनी हुई और गंभीर लग रही थी, और उसके हाथ में अपना ज़िप वाला काला पर्स था। नमस्ते करने के बाद नास्त्या दादी बैठ गई और बोली:
“मेरी माँ। गुज़र गई। ”
पाशा बुआ ने सलीब का निशान बनाया और कहा:
“ख़ुदा उन्हें जन्नत बख़्शे !”
नास्त्या दादी ने पर्स से एक आलूबुखारा निकाला और सिर्योझा को दिया।
“उसके लिए ले गई थी, मगर वे बोले – दो घंटे पहले मर गई। खा, सिर्योझा, ये धुले हुए हैं। अच्छे आलूबुखारे हैं। माँ को अच्छे लगते थे : चाय में डालती थी, उबालती थी और खाया करती थी। ये सारे तू ही ले ले। ” और वह आलूबुखारे पर्स से निकाल निकाल कर मेज़ पर रखने लगी।
“ये किसलिए, अपने लिए रखिए,” पाशा बुआ ने कहा।
नास्त्या दादी रोने लगी।
“नहीं चाहिए मुझे। माँ के लिए ख़रीदा करती थी। ”
“कितनी उम्र थी उनकी ?” पाशा बुआ ने पूछा।
“तेरासीवाँ चल रहा था। लोग इससे भी ज़्यादा साल जीते हैं। नब्बे साल तक, देखती तो हो, जीते हैं। ”
“थोड़ा दूध पी लीजिए,” पाशा बुआ ने कहा। “एकदम ठण्डा, तहख़ाने से लाई हूँ। खाना तो पड़ेगा ही, क्या कर सकते हैं। ”
“दीजिए,” नास्त्या दादी ने नाक सुड़कते हुए कहा, और दूध पीने लगी। पीते पीते कहने लगी, “बिल्कुल आँखों के सामने दिखाई दे रही है, जैसे मेरे सामने खड़ी हों। और कैसी होशियार थीं और कितनी किताबें पढ़ती थीं, अचरज होता है। मेरा घर अब ख़ाली हो गय। मैं किसी को किराए पर रख लूँगी। ”
“आह – आह – आह – आह !” पाशा बुआ ने गहरी साँस ली।
सिर्योझा ने हाथों में आलू बुखारे भर लिए और वह आँगन में निकल गया, नर्म-गर्म धूप में बैठा और सोचने लगा।
अगर अब नास्त्या दादी का घर ख़ाली हो गया है, तो – इसका मतलब ये हुआ कि परदादी मर गई है: वे दोनों ही तो रहती थीं; मतलब, वह नास्त्या दादी की माँ थी। और सिर्योझा सोचने लगा कि अगली बार जब वह नास्त्या दादी के घर जाएगा, तो कोई उस पर नज़र नहीं रखेगा, न ही कोई उसे डाँटेगा।
उसने मौत देखी थी। चूहे को देखा था जिसे ज़ायका बिल्ले ने मार डाला था, और इससे पहले चूहा फ़र्श पर दौड़ रहा था, और ज़ायका उसके साथ खेल रहा था, और अचानक वह उछला और पीछे हट गया, और चूहे ने दौड़ना बन्द कर दिया, और ज़ायका ने उसे खा लिया, अपने भरे हुए थोबड़े को आराम से हिलाते हुए। सिर्योझा ने मरे हुए बिल्ली के बिलौटे को भी देखा था जो गन्दे फर के टुकड़े जैसा लग रहा था; मरी हुई तितलियों को देखा था – फटे हुए, पारदर्शी, बिना पराग के पंखों वाली; मरी हुई मछलियों को देखा था जो किनारे पर फेंकी गई थीं; मरी हुई मुर्गी को, जो किचन की बेंच पर पड़ी थी: उसकी गर्दन बत्तख की गर्दन जैसी लम्बी थी, और गर्दन में काला छेद था, और उस छेद से नीचे रखे बर्तन में बूंद बूंद करके खून गिर रहा था। न तो पाशा बुआ, न ही मम्मा मुर्गी को काट सकीं, उन्होंने यह काम लुक्यानिच को सौंप दिया। वह मुर्गी लेकर बाहर के गोदाम में छिप गया, मुर्गी चिल्ला रही थी, और सिर्योझा भाग गया जिससे उसकी चीख़ें न सुन सके; और फिर किचन से आते हुए उसने नफ़रत से और अनचाही उत्सुकता से कनखियों से देखा कि कैसे काले छेद से बर्तन में खून टपक रहा है। उसे सिखाया गया कि अब मुर्गी का अफ़सोस करने की कोई ज़रूरत नहीं है, पाशा बुआ अपने फूले फूले हाथों से उसके पंख उखाड़ती और सांत्वना देते हुए कहती, “अब वह कुछ भी महसूस नहीं कर सकती है। ”
एक मरी हुई चिड़िया को सिर्योझा ने हाथ से छुआ था। चिड़िया इतनी ठंडी थी कि सिर्योझा ने डर के मारे हाथ झटक दिया। वह इतनी ठंडी थी जैसे बर्फ़ का टुकड़ा, बेचारी चिड़िया, जो दोनों पैर ऊपर किए लाइलैक की झाड़ी के नीचे पड़ी थी, जो धूप से गरम हो रही थी।
निश्चलता और ठंडापन – शायद इसी को मौत कहते हैं।
लीदा ने चिड़िया के बारे में कहा:
“चलो, उसे दफ़नाते हैं !”
वह एक छोटा सा डिब्बा लाई, उसमें कपड़े का एक टुकड़ा बिछाया, दूसरे टुकड़े से उसने तकिया बनाया और उसके चारों ओर लेस सजा दी: बहुत कुछ आता है लीदा को, उसकी तारीफ़ करनी पड़ेगी। उसने सिर्योझा से एक छोटा सा गड्ढा खोदने को कहा। वे चिड़िया वाले डिब्बे को गड्ढे तक लाए, उसे ढक्कन से बन्द किया और उस पर मिट्टी छिड़क दी। लीदा ने अपने हाथों से उस छोटे से मिट्टी के ढेर को समतल किया और उसमें एक टहनी घुसा दी।
“देखो, हमने उसे कैसे दफ़ना दिया !” उसने अपने आप ही अपनी तारीफ़ की। “उसने तो सोचा भी नहीं था !”
वास्का और झेन्का ने इस खेल में भाग लेने से इनकार कर दिया, वे दूर बैठे रहे और सिगरेट पीते हुए उदासी से देखते रहे; मगर उन्होंने ज़रा भी मज़ाक नहीं उड़ाया।
कभी कभी लोग भी मरते हैं। उन्हें लम्बे लम्बे बक्सों – ताबूत – में रखते हैं – और रास्तों से ले जाते हैं। सिर्योझा ने दूर से ये देखा था। मगर मरे हुए आदमी को उसने कभी नहीं देखा था।
। पाशा बुआ ने एक गहरी प्लेट में पके हुए सफ़ॆद और नर्म चावल रखे और प्लेट के किनारों पर थोड़ी थोड़ी जगह छोड़ कर लाल जैली रखी। बीच में, चावल के ऊपर, उसने फ्रूट जैली से कोई फूल, या शायद कोई सितारा बनाया।
“ये सितारा है ?” सिर्योझा ने पूछा।
“ये सलीब है,” पाशा बुआ ने जवाब दिया। “हम दोनों परदादी को दफ़नाने जाएँगे। ”
उसने सिर्योझा का मुँह धोया, हाथ-पैर धोए, उसे मोज़े पहनाए, जूते पहनाए, नाविकों का यूनिफॉर्म पहनाया और नाविकों की कैप भी पहनाई – फ़ीतों वाली – बहुत सारी चीज़ें ! उसने ख़ुद भी अच्छे कपड़े पहने – काला लेस वाला स्कार्फ़। चावल वाली प्लेट को सफ़ेद रूमाल में बांधा। इसके अलावा उसने एक गुलदस्ता भी लिया, और सिर्योझा के हाथों में भी फूल पकड़ाए, मोटी मोटी टहनियों पर दो डेलिया के फूल।
वास्का की माँ डोलची लेकर पानी के लिए जा रही थी। सिर्योझा ने उससे कहा, “नमस्ते ! हम परदादी को दफ़नाने जा रहे हैं !”
लीदा अपने फ़ाटक के पास नन्हें विक्टर को हाथों में उठाए खड़ी थी। सिर्योझा ने उससे भी चिल्लाकर कहा, “मैं परदादी को दफ़नाने जा रहा हूँ !” - और उसने जलन भरी नज़रों से उसे बिदा किया। उसे मालूम था, कि उसका दिल भी जाने को चाह रहा है; मगर वह तय नहीं कर पा रही है, क्योंकि वह इतने ठाठ से जा रहा है, और वो गंदे कपड़ों में और बिना जूतों के है। उसे उस पर दया आई और उसने मुड़ कर उसे पुकारा, “हमारे साथ चलोगी ! कोई बात नहीं है !”
मगर वह बड़ी स्वाभिमानी है, वह न तो आई और न ही उसने कुछ कहा, सिर्फ पीछे से उसे तब तक देखती रही जब तक वह नुक्कड़ से मुड़ न गया।
एक सड़क पार की, दूसरी भी पार की। बहुत गर्मी थी। सिर्योझा दो भारी फूल पकड़ने के कारण थक गया और पाशा बुआ से बोला,
”तुम ही ले चलो इन्हें !”
उसने ले लिए। और अब वह लड़खड़ाने लगा: चलते चलते सीधी सपाट जगह पर भी लड़खड़ाता है।
“तू ये लड़खड़ा क्यों रहा है ?” पाशा बुआ ने पूछा।
“क्योंकि मुझे गर्मी लग रही है,” उसने जवाब दिया। “ये सब कपड़े उतार लो, मैं बस पैंट पर ही चलूंगा। ”
“बकवास मत कर,” पाशा बुआ ने कहा। “वहाँ द्फ़न के लिए तुझे सिर्फ पैंट में कौन जाने देगा। बस, अभी पहुँच जाते हैं बस स्टॉप तक और फिर बस में बैठेंगे। ”
सिर्योझा ख़ुश हो गया और बहादुरी से उस अंतहीन रास्ते पर चलने लगा, अनगिनत फैंसिग्स के पास से, जिनमें से पेड़ों की टहनियाँ उनके सिरों पर लटक रही थीं।
सामने से धूल उड़ाती गाएँ आ रही थीं। पाशा बुआ ने कहा, “मेरा हाथ पकड़। ”
“मुझे प्यास लगी है,” सिर्योझा ने कहा।
“कुछ भी मत सोच,” पाशा बुआ ने कहा। “तुझे ज़रा भी प्यास नहीं लगी है। ”
यहाँ उसने गलती कर दी थी: उसे सचमुच में प्यास लगी थी। मगर जब उसने ऐसा कहा तो उसकी प्यास थोड़ी कम हो गई।
गाएँ गुज़र गईं, अपने गंभीर सिर धीरे धीरे हिलाते हुए। हरेक का थन दूध से लबालब भरा था।
चौक पर सिर्योझा और पाशा बुआ बस में बैठे, बच्चों वाली जगह पर। सिर्योझा कभी कभार ही बस में जाया करता था, यह मनोरंजन उसे अच्छा लगता था। अपनी सीट पर घुटनों के बल खड़े होकर वह खिड़की से बाहर देख रहा था और अपने पड़ोसी पर भी नज़र डाल रहा था। पड़ोसी एक मोटा बच्चा था, सिर्योझा से छोटा, वह बाँस की सींक पर लगे लॉली पॉप के मुर्गे को चूस रहा था। पड़ोसी के गाल लॉली पॉप के कारण चिपचिपे हो गए थे। वह भी सिर्योझा की ओर देख रहा था, उसकी नज़रें कह रही थीं, “और तेरे पास तो लॉली पॉप का मुर्गा ही नहीं है, हा, हा ! !” कंडक्टरनी आई।
“क्या बच्चे का टिकट लेना पड़ेगा ?” पाशा बुआ ने पूछा।
“अपनी नाप दो, बच्चे,” कंडक्टरनी बोली।
वहाँ एक काला निशान बना हुआ था, जिससे बच्चों की नाप ली जाती है: जो उस निशान तक पहुँचता है उसकी टिकट लेनी पड़ती है। सिर्योझा निशान के नीचे खड़ा हुआ और उसने अपनी एड़ियाँ कुछ ऊँची कर लीं। कंडक्टरनी बोली, “टिकट लीजिए। ”
सिर्योझा ने विजयी भाव से पड़ोसी बच्चे की ओर देखा, ‘और मेरे लिए तो टिकट लेना पड़ता है,’ उसने ख़यालों में उस बच्चे से कहा, ‘मगर तेरे लिए तो नहीं लेते, हा हा हा ! !’
मगर अंतिम विजय तो बच्चे की ही हुई, क्योंकि सिर्योझा और पाशा बुआ के उतरने के बाद भी वह बस में सिर्योझा से आगे जा रहा था।
वे सफ़ेद पत्थरों के गेट के सामने खड़े थे। गेट के पीछे लम्बे सफ़ेद घर थे, जिनके चारों ओर छोटे छोटे पेड़ लगाए गए थे, पेडों के तने भी चूने से सफ़ेद कर दिए गए थे। नीले नीले गाऊन पहने लोग या तो घूम रहे थे या बेंचों पर बैठे थे।
“ये हम कहाँ हैं ?” सिर्योझा ने पूछा।
“अस्पताल में,” पाशा बुआ ने जवाब दिया।
बिल्कुल आख़िरी घर के सामने आए, फिर कोने से मुड़ गए और सिर्योझा ने करस्तिल्योव को, मम्मा को, लुक्यानिच को और नास्त्या दादी को देखा। सब एक खुले हुए चौड़े दरवाज़े के पास खड़े थे। और तीन अनजान बूढ़ी औरतें सिर पर रूमाल बांधे खड़ी थीं।
“हम बस में आए !” सिर्योझा ने कहा।
किसी ने भी जवाब नहीं दिया, मगर पाशा बुआ ने धीरे से “शू s s s” किया, और वह समझ गया कि न जाने क्यों, बात करना मना है। वे ख़ुद बात कर रहे थे, मगर बहुत धीमी आवाज़ में। मम्मा ने पाशा बुआ से कहा, “आप इसे क्यों ले आईं, समझ में नहीं आता !”
करस्तिल्योव नीचे गिरे हाथ में कैप पकड़े खड़ा था, उसका चेहरा बहुत भला और सोच में डूबा हुआ था। सिर्योझा ने अन्दर झाँका – वहाँ सीढ़ियाँ थीं, नीचे तहख़ाने में जाने के लिए, तहख़ाने के धुंधलके से नम ठंडक महसूस हो रही थी। सब धीरे धीरे आगे बढ़े और सीढ़ियों से नीचे उतरने लगे, और सिर्योझा उनके पीछे था।
दिन की रोशनी के बाद तहख़ाने में पहले तो अंधेरा ही दिखाई दिया। फिर सिर्योझा को दीवार से लगी हुई एक चौड़ी बेंच दिखाई दी, सफ़ेद छत और चिप्पी उड़ा हुआ सिमेंट का फ़र्श था, और बीच में कुछ ऊँचाई पर जालीदार सूती झालर लगा हुआ ताबूत। बहुत ठंडक थी, मिट्टी की और किसी और चीज़ की गंध आ रही थी। नास्त्या दादी लम्बे लम्बे कदम रखते हुए ताबूत के पास पहुँची और उस पर थोड़ा सा झुकी।
“ये क्या है !” हौले से पाशा बुआ ने कहा। “हाथ कैसे रखे हैं ! हे भगवान ! । लम्बे, खिंचे हुए !”
“वे भगवान में विश्वास नहीं करती थीं,” नास्त्या दादी ने सीधे होते हुए कहा।
“इससे क्या हुआ,” पाशा बुआ ने कहा, “वे कोई सैनिक थोड़ी हैं कि इस तरह से भगवान के सामने जाएँ। ” और वह बूढ़ी औरतों की ओर मुड़ी, “आपने कैसे ध्यान नहीं दिया !”
बूढ़ी औरतें आहें भरने लगीं। सिर्योझा को नीचे से कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था। वह बेंच पर चढ़ गया और उसने गर्दन बाहर निकाल कर ऊपर से ताबूत के अन्दर देखा।
वह सोच रहा था कि ताबूत में परदादी है। मगर वहाँ तो समझ में न आने वाला कुछ पड़ा था। ‘वो’ परदादी की याद दिला रहा था: वैसा ही पिचका हुआ मुँह और ऊपर को उठी हड़ीली ठोढ़ी; मगर ‘वो’ परदादी नहीं था। ‘वो’ न जाने क्या था। आदमी की आँखें ऐसी बन्द नहीं होतीं। जब आदमी सोता है, उसकी आँखें अलग तरह से बन्द होती हैं।
’वो’ लम्बा लम्बा था। मगर परदादी तो छोटी सी थी। ‘वो’ घनी ठण्डक से, अंधेरे से और भयानक ख़ामोशी से पूरी तरह घिरा हुआ था, जिसमें ताबूत के पास खड़े लोग भयभीत होकर फुसफुसाकर बातें कर रहे थे। सिर्योझा को भयानक डर लगा। अगर ‘वो’ अचानक ज़िन्दा हो जाए तो और भी डरावनी बात होगी। अगर ‘वो’, मान लो, ‘ख र्र र्र र्र । ’ करने लगे तो। इस ख़याल से सिर्योझा चीख़ पड़ा।
वह चीख़ा, और, जैसे यह चीख़ सुन कर, ऊपर से, रोशनी से, नज़दीक ही प्रसन्नता भरी एक तेज़ जानदार आवाज़ सुनाई दी, गाड़ी के साइरन की आवाज़ थी वो। मम्मा सिर्योझा को पकड़कर तहख़ाने से ऊपर ले आई। दरवाज़े के पास लॉरी खड़ी थी, एक ओर से नीचे को झुकी हुई। वहीं कुछ अंकल लोग घूम रहे थे और सिगरेट पी रहे थे। लॉरी के कैबिन में ड्राईवर तोस्या बुआ बैठी थी, वो ही, जो तब करस्तिल्योव का सामान लाई थी; वह ‘यास्नी बेरेग’ में काम करती है और कभी कभी करस्तिल्योव को लेने के लिए आती है। मम्मा ने सिर्योझा को उसके पास बिठाया और बोली : “यहीं बैठे रहो !” – और उसने फ़ौरन कैबिन बन्द कर दिया। तोस्या बुआ ने पूछा, “परदादी को बिदा करने आए हो ? तुम क्या उससे प्यार करते थे ?”
“नहीं,” सिर्योझा ने साफ़ साफ़ जवाब दिया। “प्यार नहीं करता था। ”
“तो फिर तुम क्यों आए ?” तोस्या बुआ ने कहा, “अगर प्यार नहीं करते थे, तो यह सब देखना नहीं चाहिए। ”
रोशनी और आवाज़ों के कारण डर भाग गया था, मगर सिर्योझा एकदम से उस अनुभव से अपने आप को दूर न कर सका, वह कसमसा रहा था, इधर उधर देख रहा था, सोच रहा था। और उसने पूछा, “भगवान के सामने जाने का क्या मतलब होता है ?”
तोस्या बुआ मुस्कुराई, “ये, बस, ऐसा ही कहते हैं। ”
“क्यों कहते हैं ?”
“बूढ़े लोग कहते हैं। तुम उनकी बात मत सुनो। ये सब बेवकूफ़ियाँ हैं। ”
कुछ देर चुपचाप बैठे रहे। तोस्या बुआ ने अपनी हरी आँखें सिकोड़ते हुए रहस्यमय अंदाज़ में कहा, “सब वहीं जाएँगे। ”
‘कहाँ – वहाँ ?’ सिर्योझा सोचने लगा। मगर इस बात को समझने का उसका मन नहीं था; उसने पूछा नहीं। यह देखकर कि तहख़ाने से ताबूत बाहर ला रहे हैं, उसने मुँह फेर लिया। इस बात से कुछ हल्का महसूस हो रहा था कि ताबूत पर ढक्कन लगा था। मगर यह बात बड़ी बुरी लगी कि उसे लॉरी पर रखा गया।
कब्रस्तान में ताबूत को उतारा गया और उसे ले गए। सिर्योझा और तोस्या बुआ कैबिन से बाहर नहीं निकले, वे दरवाज़ा बन्द किए भीतर ही बैठे रहे। चारों ओर सलीब और लाल सितारों वाली लकड़ी की छोटी छोटी मीनारें थीं। पास में ही सूखने के कारण दरारें पड़ी छोटी सी पहाड़ी पर लाल चींटियाँ रेंग रही थीं। दूसरी पहाड़ियों पर ऊँची ऊँची घास लगी थी। ’कहीं वह कब्र के बारे में तो नहीं कह रही थी ?’ सिर्योझा ने सोचा, ‘कि सब वहाँ जाएंगे ?’ – वे, जो चले गए थे, बगैर ताबूत के वापस लौटे। लॉरी चल पड़ी।
“उस पर मिट्टी डाल दी ?” सिर्योझा ने पूछा।
“डाल दी, बच्चे, डाल दी,” तोस्या बुआ ने कहा।
जब घर वापस पहुँचे, तो पता चला कि पाशा बुआ वहीं, कब्रस्तान में रुक गई है बूढ़ी औरतों के साथ।
“पाशेन्का को यह देखना ही होगा कि उसका ‘राईस-पुडिंग’ खा लिया गया है – बड़ी मेहनत से बेचारी ने बनाया था। ”
नास्त्या दादी ने रूमाल खोलकर अपने बाल ठीक करते हुए कहा, “उनसे क्या झगड़ा करना है ? यदि उन्हें लोभान जलाना ही है तो जलाने दो। ”
वे फिर से बातें करने लगे – ज़ोर से, और वे मुस्कुरा भी रहे थे।
“हमारी पाशा बुआ हज़ारों बातों में विश्वास करती हैं,” मम्मा ने कहा।
वे खाने के लिए बैठे। सिर्योझा से यह न हो सका। उसे खाने को देखकर नफ़रत हो रही थी। ख़ामोश बैठा वह बड़े लोगों के चेहरों को ग़ौर से देख रहा था। वह याद न करने की कोशिश कर रहा था, मगर ‘वो’ याद आए जा रहा था – लम्बा, ठंडक और मिट्टी की गंध में लिपटा डरावना।
“उसने ऐसा क्यों कहा,” उसने कहा, “कि सब वहीं जाएँगे ?”
बड़े लोग चुप हो गए और उसकी ओर मुड़े।
“तुमसे किसने कहा ?” करस्तिल्योव ने पूछा।
“तोस्या बुआ ने। ”
“तुम तोस्या बुआ की बात मत सुनो,” करस्तिल्योव ने कहा, “तुम्हें तो शौक ही है सबकी बातें सुनने का। ”
“हम सब, क्या, मर जाएँगे ?”
वे सब इतने गड़बड़ा गए, जैसे उसने कोई भद्दी बात पूछ ली हो। मगर वह उनकी ओर देख रहा था और जवाब का इंतज़ार कर रहा था।
करस्तिल्योव ने जवाब दिया, “नहीं। हम नहीं मरेंगे। तोस्या बुआ जो चाहे कहे, मगर हम नहीं मरेंगे, और ख़ास कर तुम; मैं तुमसे वादा करता हूँ। ”
“कभी भी नहीं मरूँगा ?” सिर्योझा ने पूछा।
“कभी भी नहीं !” दृढ़ता से और विजयी मुद्रा से करस्तिल्योव ने वादा किया।
और सिर्योझा को एकदम हल्का और ख़ुशनुमा महसूस होने लगा। ख़ुशी से वह लाल पड़ गया – गहरा लाल – और हँसने लगा। उसे अचानक बड़ी प्यास लगी : उसे तो कब से प्यास लगी थी, मगर वह भूल गया था। और उसने ख़ूब सारा पानी पिया, पीता रहा और उसका आनन्द उठाते हुए वह कराहता भी रहा। उसे इस बात में ज़रा सा भी शक नहीं था कि करस्तिल्योव ने सच कहा है: ठीक ही तो है, अगर उसे मालूम होता कि वह मरने वाला है, तो वह जी कैसे सकता था ? और क्या उसकी बात पर अविश्वास दिखाया जा सकता था, जिसने कहा था : “तुम नहीं मरोगे !”