सिक्सर
सिक्सर
आज हमारा फाइनल मैच है दादी।फटाफट प्रसाद दो कहते हुए तनुश्री ने घर के मंदिर में पूजा करती दादी के समक्ष दोनों हाथ फैला दिए।
अरे रे रे....क्या कर रही है ।अभी तो तीसरा दिन है तेरा... पूरा मंदिर अपवित्र कर दिया । बाल भी नहीं धोए और चली है प्रसाद लेने ....चल निकल माँ ने डॉटते हुए किचन से कहा।
दादी ने दोनों कानों को पकड़ कर भगवान से माफी मांगी ।तनुश्री को अभी भी वहीं खङा देखा तो हाथों से दूर जाने का इशारा करते हुए दादी जोर -जोर से घंटी बजाने लगी ।
"क्या है मेरी दकियानूसी दादी", कहते हुए तनुश्री ने दादी के गले में बांहें डाल दी।
"पागल है तू.....भगवान जी पाप देंगें " कहते हुए दादी ने आँखें दिखाई।
"क्यों पाप देंगें ...मैंनें क्या गलत किया?"
"अरे इन दिनों में ....।"
"इन दिनों में क्या दादी ....जिस लक्ष्मी , दुर्गा, सरस्वती, काली की तुम पूजा करती हो वे क्या इन दिनों से नहीं गुजरी..., फिर उनकी पूजा क्यों....इन दिनों की बदौलत ही तो किसी स्त्री को माँ बनने का वरदान मिलता है और वो वरदान भी तो भगवान ने दिया है ।खुद भगवान भी तो किसी स्त्री की कोख से ही जन्म लेते हैं।फिर वो अछूत कैसे हो सकती है ....?" तनुश्री ने सवाल किया तो दादी हक्की- बक्की रह गई।समझ नहीं पाई कि क्या कहे अपनी धुन की पक्की पोती से।दादी कुछ कहती इससे पहले ही तनुश्री चहकी- "दादी देती हो प्रसाद की खुद उठा लुँ मंदिर से...।"
"देती हूँ बाबा देती हूँ", कहते हुए दादी ने एक पेङा धर दिया तनुश्री के हाथ पर ।
"जा....घर में जैसे सिक्सर लगाती हो ना वैसे ही खूब सिक्सर लगाना मैदान में ... ।"
"बिल्कुल दादी" ,कहते हुए तनुश्री ने अपना किक्रेट किट उठाया और सीढ़ियों की तरफ दौङ गई।
माँ चुपचाप किचन में मुस्कुरा रही थी।
