Shishira Pathak

Abstract

5.0  

Shishira Pathak

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पीट्टो

पीट्टो

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आज एक अजीब सी बात हुई, ठंड का मौसम था, शाम हो रही थी, भीड़ में सभी कारों की और मोटरसाइकिलों की बत्तियां जल रही थी।

कुछ धुंद भी छा रही थी, धीमे धीमे से ठण्डी हवा भी बह रही थी, भीड़ के बीच रेल फाटक पर मैं रेलगाडी आने का इंतज़ार कर रहा था। पास ही एक मैदान था,

कुछ बच्चे वहाँ लाइट पोस्ट की नारंगी रौशनी के नीचे खेल रहे थे।

एक बच्चे के हाथ में कुछ गेंद सी दिखाई पड़ी, ध्यान से देखा तो घिसी-पिटी सी धूल में सनी प्लास्टिक की "सफ़ेद" गेंद थी। गेंद वाला वो बच्चा भी देखा- देखा सा प्रतीत हो रहा था

वो छोटे बड़े पत्थरो को जमा कर एक के ऊपर एक रख रहा था। बाकी बच्चे उसके आस पास इकठ्ठा हो गए थे। उसने ज़ोर से गेंद को उन जमा किये पत्थरो पर दे मारा और भागने लगा। गेंद मैदान में दूर कहीँ चली गयी, अँधेरा हो चला था। बाकी के बच्चे गेंद को मैदान में इधर उधर ढूँढने लगे। वो बच्चा जल्दी -जल्दी फिर से पत्थरों को ठीक उसी तरह जमा करने लगा जैसे की उसने पहले किया था। अब तो खेल भी जाना हुआ लगने लगा था मुझे।

तभी किसी बच्चे को गेंद मिल गयी, उसने गेंद ज़ोर से पत्थरों की ओर फेंकी जो छिटक कर अचानक मेरी ओर हवा में तेज़ी से बहती हुई आने लगी,आँखे ज़ोर से बंद कर मैंने

अपने चेहरे को बचने के लिए अपना "दाहिना" हाथ उठाया, लेकिन जब आँखेँ खोली मैंने तब न तो बच्चे थे, न ही कोई पत्थर और न ही वह "सफ़ेद" गेंद...प्लास्टिक की..

बस रेलगाड़ी की ज़ोर से हॉर्न बजाते हुए फाटक को पार करने की आवाज़ थी।

और उसके पहियो की आवाज़ पटरियों से निकल कर भीड़ में मिल सी जा रही थी। पिट्टो खेल रहे थे बच्चे........पिट्टो.. गुज़रे हुए कल में........नाम तो सुना ही होगा आपने "पिट्टो" का

या फिर "शयाद" खेल भी होगा....क्यों ठीक "ही"कहा ना मैंने ?.


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