नंदू की बदनसीबी
नंदू की बदनसीबी
हिमाचल की हसीन वादियों की एक चोटी पर नंदू का भी अपना एक छोटा सा घर परिवार है। वह अपने परिवार के भरण पोषण के लिए दिन - रात कड़ी मेहनत करता है।
न सुबह की परवाह न सांझ की खबर ,बस लगा रहता है। उसके एक बेटी है और एक बेटा। बेटी का नाम है सरोज और बेटे का नाम है जोगिंदर।
पत्नी बड़ी सुंदर थी। इसी सौंदर्य की ताकत से वह किसी शहरी मर्द को भा गई और नंदू की गरीबी से तंग आ कर वह अपने जीवन की हसरतें पूरा करने के लिए उस शहरी बाबू के साथ भाग गई थी। दो छोटे - छोटे बच्चे नंदू को पालने पोसने को छोड़ गई। पहाड़ों में पहले यह अमूमन होता ही रहता था। नंदू ने दूसरी शादी भी की थी,ताकि उसकी जवानी भी कट जाए और उन छोटे - छोटे बच्चों का लालन पालन भी विधिवत हो जाए। मां की कमी उन्हे न खले। दुर्भाग्य देखिए कि दूसरी पत्नी भी बेचारी पत्तियां काटते हुए एक बान के पेड़ से पांव फिसलने के कारण गहरे नाले में जा गीरी और भगवान को प्यारी हुई। इस बीच वह गर्भ से थी। साल भर का वह साथ नंदू के जीवन में खुशियां लाया जरूर था,पर कुदरत को वह भी गवारा न गुजरा।
पहले वाली के दोनों बच्चों के साथ जीने का इरादा बना लिया। शादियां भी कितनी करता बेचारा? नंदू के मां - बाप उसके इन बच्चों का लालन पालन करने में ताउम्र उसकी मदद करते आए थे। पिछले ही साल वे भी दोनों बुढ़ापे के चलते लगभग पांच - छे महीने के अंतराल में खुदा को प्यारे हो गए थे।
बेटी बड़ी है। जवान हो गई है। पवन से उसकी शादी तय हो चुकी है। बस पैसों की तंगी के चलते नंदू शादी आगे - आगे टाल देता है। इस बार खेतों में नंदू ने एड़ी चोटी का जोर लगाकर जान फूंक दी है। आलू भी अच्छे हैं और मटर तो और भी अच्छे हैं। सब गांव वाले कहते "नंदू इस बार तो तू हाथ रंग लेगा। "
" हां! सो तो है भाई। शायद कुदरत ने मेरी इस बार सुन ली। अबकी मैं बेटी के हाथ पीले कर ही दूंगा। " नंदू यह सबसे कहता फिरता।
एक रोज सरोज हांफते हुए खेतों की रखवाली करते हुए नंदू के पास दौड़ कर आई और रोते हुए बोली" बाबा ! बाबा ! जोगिंदर...जोगिंदर..........!"
" क्या हुआ जोगिंदर को? तू कुछ बोलती क्यों नहीं?" नंदू ने चौंकते हुए पूछा ।
" बाबा वह कमलू के साथ मोटर साइकिल पर स्कूल से घर आ रहा था। उन दोनों का एक्सिडेंट हो गया है। उसे सिर पर गहरी चोट लगी है। उसे लोग शहर के अस्पताल ले गए हैं। यहां के डाक्टर ने कहा तुरंत ले जाओ। " यह कहते - कहते सरोज फुट - फुट कर रोने लगी।
नंदू पैसों का प्रबंध कर के शहर चला जाता है। सरोज खेत खलियान की रखवाली कर रही थी। इस बीच एक दिन उसे तेज बुखार आया मौसम खराब था। वह बिस्तर से उठ ही नहीं पा रही थी। उधर बाहर तेज ओला वृष्टि हो रही थी। मटर की फसल, जो लगभग तैयार थी, वह तो ओला वृष्टि ने लील ली थी और रही सही कसर जंगली जानवरों ने रखवाला न होने के चलते पूरी की। बचे आलुओं की फसल की कमाई जोगिंदर के इलाज में लग गई। नंदू को सरोज की शादी फिर से टाल देनी पड़ी।
उस दिन जोगिंदर सरोज की गोद मैं सिर रख कर रो रहा था और कह रहा था" दीदी तुम जीजा जी से कहो न कि वह तुम्हें भगा कर ले जाए। बाबा के पास पैसे नहीं है। और तुम कब तक इंतजार करोगी?"
दोनों भाई - बहन एक दूसरे का हाथ सहलाते हुए रो रहे थे। यह सब नंदू ने पिछवाड़े से चुपके से सुन लिया था। वह भी चुपके - चुपके खूब रोया । पर किस्मत के आगे विवश था। दूसरे ही दिन वह अपने होने वाले दामाद को बुलाता है और कुछ दिनों बाद एक मंदिर से बेटी का छोटा सा विवाह कर के उसे अपने घर भेज देता है। उसकी यह हसरत भी अधूरी ही रह जाती है कि मैं अपनी बेटी की शादी धूमधाम से करूंगा, ताकि उसे मां की कमी न खले।
घोषणा:-
मेरी मौलिक, स्वरचित ।
