मुन्नी भाभी

मुन्नी भाभी

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छुट्टी का दिन था, तो मानसी ने आज फिर पूरे परिवार को इकठ्ठा कर ताश की बाज़ी जमा ली थी। माँ के पलंग पर बैठी वो उनसे हमेशा की तरह बतियाती भी जा रही थी,"देखो माँ ये वाला पत्ता फेंकू या ये डालूँ" आँखों ही आँखों में उसे ये जता कर सभी चिढाते हुये हँस रहे थे कि लो इनके पूछने से माँ तो जैसे बता ही देंगी।

करीब 6 माह पहले मानसी इस परिवार में बहू बनकर आई थी। एक दुर्घटना में उसकी सास पूरी तरह लकवा ग्रस्त, बोलने तक से लाचार होकर बिस्तर पर पड़ी थी. उसने देखा घर के एक कोने में उनका कमरा था। उनकी तीमारदारी हेतु पूरे समय के लिए नर्स थी, पर उनके कमरे में घर के सदस्य दिन में बस कभी-कभार झाँकलेते। उसके सामने जब डॉक्टर चेकअप के लिए आये तो मानसी ने उनके ठीक होने की संभावना के बारे में पूछा। जवाब मिला "हम तो प्रयास कर ही रहे हैं, पर मरीज़ तो एकदम निस्पृह है जैसे उसे विरक्ति है। जीवन से उनमें यदि जीने की इच्छा शक्ति नहीं जागेगी तो दवाईयाँ भी बेअसर होगी।" घर के सभी सदस्यों से मानसी ने इस बारे में बात की। माँ पूरे जीवन बेहद ज्यादा सक्रिय रहीं। सब उन पर निर्भर थे। उनके इस स्थिति में आ जाने से अब बेहद दुखी भी थे। जीवन सभी का अस्तव्यस्त हो गया था। पर ज्यादा वक़्त माँ के पास कैसे बिताएं ? नर्स तो देखभाल कर ही रही हैं न और दवाईयाँ भी नियमित दी जा रही हैं। सभी ने अपनी- अपनी व्यस्तता का रोना रो दिया। मानसी हतप्रभ रह गई थी। क्या सच में किसी का कोई कर्तव्य नहीं ? माँ के लिए नर्स का इंतजाम कर कर्तव्य की इतिश्री हो गई ? जो कभी इस परिवार की धुरी थीं। जिनके आगे पीछे पूरा घर नाचता था आज लाचार पड़ी हैं। किसी को मेरी परवा है, कोई सिर्फ मेरे लिए जिंदा है, ये अहसास जीने की प्रेरणा देता है। जब सब उनकी तरफ से निस्पृह हो गए हैं तो वो जीकर भी क्या करें ? वो भी जीने की इच्छा गँवा कर विरक्त हो गई हैं अपने आप से, इस जीवन से

मानसी ने दूसरे ही दिन माँ का बिस्तर बाहर हॉल में लगवा दिया। जहाँ उन्हें घर के हर सदस्य की गतिविधि दिखती रहे। वो भी सभी की नज़रों में रहें. सभी को स्पष्ट हिदायत भी दी कि यहाँ से निकलते हुए माँ से बात ज़रूर करें। मानसी को लगा उसे यानि नई बहू को माँ जरुर कुछ समझाना और बताना चाहती होंगी। कितने सपने देखे होंगे उन्होंने अपनी बहू को लेकर अब उसे ही कुछ करना होगा। घर के लोगों से उसने उनके बारे में पूरी जानकारी ले ली। अब मानसी माँ के आस-पास बैठ कर ही काम करती और बतियाती "माँ, दो लीटर दूध है, खीर के लिए चावल इतना काफी है ? आपकी कटहल की सब्जी की सभी बहुत तारीफ़ करते हैं. मुझे बताइए न कैसे बनाऊँ ? देखिये कटहल के टुकड़े इतने बड़े रखूँ ? ये देखिये माँ ,एक पार्टी में जाना है. ये साड़ी अच्छी लग रही या वो वाली ?" दिन भर घर, रिश्तेदारों और कॉलोनी वालों के घर में क्या कुछ घटित हुआ वो उन्हें बताती रहआस-पास घूमती, इधर-उधर से प्रश्न करती बहू को जवाब देने के लिए नज़रों के साथ माँ की गरदन भी अब उसको देखने और जवाब देने के लिए थोड़ा थोड़ा हिलने लगी थी। ये देख अब तक उसे "मुन्ना भाई एमबीबीएस" की तर्ज़ पर "मुन्नी भाभी" चिढाने वाले उसके ननद और देवर तो उसका साथ देने ही लगे थे, अब पति और श्वसुर भी साथ हो गए थे। कई बार ननद और देवर झगड़ा करते हुये माँ के सामने शिकायत करने खड़े हो जाते। “माँ देखिये इस रिया की बच्ची ने मेरे लैपटॉप का ये क्या हाल किया। मैंने कुछ भी नहीं किया माँ ये देखिये भैया ने फिर से मेरी चोटी खींची।" उनके बीच होने वाले झगड़े तो अनंत थे और अब वो माँ को दुःख होगा नहीं सोचते थे बल्कि मानसी की हिदायत के अनुसार वो पहले की ही तरह झगड़ा माँ की अदालत तक लेकर चले आते। “माँ के चेहरे पर कभी गुस्सा दिखता,जो अगले ही पल मुस्कान में बदलता दिखता। कभी जैसे वो जवाब देने का प्रयास करतीं। माँ का फिल्म और फ़िल्मी गीतों से जुड़ा ज्ञान अनंत है, तो पति और श्वसुर कभी किसी फिल्म या गाने के बारे में कोई शर्त लगा उनसे पूछते। उनसे जवाब की उम्मीद में तब तक खड़े रहते जब तक कि वो पलक झपका कर या किसी भी तरह से हाँ या न कहें। श्वसुर तो अक्सर उनसे अब गाना सुनाने की जिद भी करने लगते। माँ पलक झपकाती मुस्कुराती हुई-सीये जानने के बाद कि माँ को ताश खेलने का दीवानगी की हद शौक है और पहले लगभग हर छुट्टी के दिन घर में ताश की बाजियाँ चलती थी। उसने तय कर लिया था कि हर छुट्टी को ये बाज़ी ज़मेगी। वो खुद तो अनाड़ी थी, पर अब जब भी ताश का खेल चलता वो माँ को सहारा देकर बैठा देती और खुद उन्ही के साथ बैठती। अब धीरे –धीरे सभी को फिर से एक साथ इस तरह बैठने में मज़ा आने लगा था।

आज भी सभी पहले की तरह हँसते खिलखिलाते,एक दूसरे को छेड़ते हुए खेल का मज़ा ले रहे थे। ताश की बाज़ी अब अपने चरम पर थी। प्रश्न अब जीत और हार का था तो मानसी भी माँ से पूछना भूल कर खुद ही खेल में रम गई। अपनी बारी आने पर शोरगुल के बीच दो पत्ते हाथ में लिये सोच-विचार करने लगी.सभी समवेत स्वर में शोर मचा रहे थे “जल्दी करो-जल्दी करो। काफी सोच विचार के बाद वो एक पत्ता डालने को हुई कि किसी ने पीछे से कहा " ये नहीं वो डालो " यंत्रवत उसने कहे अनुसार दूसरा पत्ता फेंक दिया। पर उसने पाया अचानक शोर थम गया था। सबको जड़वत बैठे अपने पीछे घूरते देख वो भी हैरान होकर आवाज़ की दिशा में पलटी "मुन्नी भाभी" जीत गई थी।


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