मेरा पहला सफर।
मेरा पहला सफर।
मां बाप के बिना मेरा पहला सफर बहुत ही रोमांचक रहा था। जब मैं लगभग पंद्रह साल का था तब मैंने अपने पिताजी के बिना पहला सफर किया और वो भी बहुत लम्बा और वहां जहां के सपने हम जैसे किशोर व युवा देखा करता था, राजधानी दिल्ली।
मैंने अभी अभी दसवीं पास किया था वो भी प्रथम श्रेणी में। मन में उमंग व आंखों में कुछ नये ख्वाब थे। मैं और पढ़ना चाहता था पर घर की स्थिति ऐसी
ऐसी नहीं थी कि मुझे गांंव से पचास किलोमीटर दूर
किराए का कमरा लेकर पढ़ा सके, इसलिए फैसला हुआ कि मुझे दिल्ली नौकरी के लिए भेज दिया जाएगा। हमारे गांव में स्कूल दसवीं तक ही थी इसलिए जाना अनिवार्य भी हो गया था। घर में रहकर मैं खेतों में हल नहीं चलाना चाहता था। और फिर दिल्ली जाने का सपना साकार हो रहा था।
उन दिनों दिल्ली नौकरी पाने का सबसे उपयुक्त
स्थान माना जाता था। युवाओं के पास बहुत ज्यादा
विकल्प नहीं होते थे। आज के इस इलैक्ट्रोनिक मीडिया के दौर की तरह जानकारी, विज्ञापन का दौर नहीं था। दीन दुनिया को जानने का एकमात्र साधन
समाचार पत्र ही था जो कि गाांवों में मुहैया नहीं था
कोई ऐसा व्यक्ति भी नहीं था जो मार्गदर्शन कर सके।
इसलिए दिल्ली एक सबसे उपयुक्त स्थान माना जाता था।
मेरे मामा छुट्टी पर गांव आए थे। पिताजी ने उनसे
बात की तो मेरा जाना तय हो गया। यह बात जब मुझ तक पहुंची तो मेरा खुशी का ठिकाना न रहा। मेरे आंखों में वह दृश्य घूमने लगा जैसा दिल्ली से
छुट्टी आए लोग बताया करते थे। रंग बिरंगी दिल्ली।
मेरा सपनों का शहर।
मेरी स्थिति बहुत ही ऊहापोह वाली थी। माता पिता का विछोह, छोटे भाई बहनों से बिछड़ना बहुत कष्टकारी लग रहा था पर दिल्ली दर्शन का लालच उन सब पर भारी पड़ रहा था। जाने का दिन तय था। मामाजी सरकारी नौकरी करते थे इसलिए पिताजी को लगता था और मुझे भी कि कोई अच्छी नौकरी दिलवा देंगे। हमें मामाजी को सुबह वााली एकमात्र बस में मिलना था। गांव में यातायात के नाम पर वही एक मात्र बस थी जो स्थानीय बाजार से मिलाती थी। वहां से हर जगह के लिए बस मिल जाती थी। बस सुबह सात बजे हमारे गांव से
आठ किलोमीटर की दूरी पर आती थी। जहां हमें मामा मामी को मिलना था। मां रात से ही रोये जा रही थी। छोटे भाई बहन भी उदास नज़र आ रहे थे। स्वयं मुझे भी बहुत बुरा लग रहा था। मेरा जाना हर हाल में तय था। चाहे नौकरी के लिए या दिल्ली देखने के लिए। सुबह पांच बजे हम घर से निकले। पिताजी मेरे साथ थे। मां ने रोते हुए मुझे विदा किया। वह तरह तरह की हिदायतें दे रही थी, अकेले मत जाना, सड़क हाथ पकड़कर पार करना, मामा मामी का कहना मानना, आदि आदि। रास्ते पर चलते चलते हुए पिताजी मुझे समझा रहे थे।उनकी हिदायतों में प्यार व फिक्र दोनों थी। मैं तब तो नहीं समझ पाया था पर आज जब खुद पिता हूं तो अपने पिता की वह विवशता भी समझ सकता हूं कि जब बच्चा बेरोजगार होता है या जब घर वाले एक और कमाने वाले की चाह रखते हैं, यह अक्सर गरीब घरों में होता ही है। वे बच्चे से आस लगाए बैठे रहते हैं कि कब बच्चा कमाने लायक हो जाए। हम समय पर स्टेशन पर पहुंच गए थे। कुछ देर बाद बस आ गई।
मामा मामी व उनके बच्चे गाड़ी में बैठे हुए थे। पिताजी ने मेरा थैला मुझे पकड़ाया, मामा जी से पिताजी से बात करने लगे। उन्होंने मुझे खिड़की पर बैठने को कहा पर सीट फुल थी इसलिए बीच में ही बैठना पड़ा। मुझे बस में बहुत उल्टियाँ होती थी। सफर बहुत कम होता था इसलिए बस का नाम सुनते ही उल्टियाँ शुरू हो जाती थी। मैं बैठ तो गया पर उल्टी नहीं रोक पाया, इसलिए खिड़की वाली सीट मिल गई। मैंने पिताजी को देखा था मुझे विदा करते समय उनकी आंखें नम थी। गाड़ी निकलने लगी और मेरा गांव पीछे छूटता गया। कोटद्वार तक तो मेरा बुरा हाल रहा पर कोटद्वार पहुंच कर कुछ खा लेने के बाद कुछ ठीक महसूस
किया। मैंने पहली बार होटल में खाना खाया था। अब घर की याद सताने लगी। पहली बार घर से दूर जा रहा था और मां बाप के बिना। दिल कर रहा था कि अभी वापस चला जाऊं पर अब संभव नहीं था। मन बाजार की चकाचौंध देख कर जहां खुश होना चाहिए था, उल्टा गमगीन हो रहा था। अब मन मसोसकर
रह गया था। यहां से रेलगाड़ी में जाना था। हम सभी
रेलगाड़ी का इंतजार में स्टेशन की कुर्सियों पर बैठे हुए थे। मामा के बच्चे शहर में रहने के आदी थे वे प्रफुल्लित नजर आ रहे थे। वे यहां से वहां भागम भाग
मचाए हुए थे। खुश थे क्योंकि उनके मां बाप उनके साथ है। मेरे लिए तो सबकुछ नया था। बेहद रोमांचक पर अभी मैं थोड़ा उदास था। शायद कुछ देर के बाद मैं
इन चमक दमक में रंग जाऊं। और हुआ भी ऐसा ही
जब रेलगाड़ी आई तो यह साधन मेरे लिए किसी अजूबे से कम नहीं था। पहली बार रेलगाड़ी देखी, इसके बारे में बस सुना ही था। मैं बहुत डर गया था। इतनी लंबी गाड़ी़, मैं हतप्रभ था। मुझे नहीं मालूम था कि कैसे इसमें चढ़ना है, कहां से चढ़ना है, कुछ पता नहीं। ऊपर से स्टेशन पर बहुत सारी भीड़, मैं घबरा था। जैसे तैसे मामा मामी को देख कर गाड़ी में चढ़ा। शाम गहराने लगी थी। गाड़ी चल पड़ी। एक अजीब सी आवाज़ रेलगाड़ी से निकल रही थी जो पहले कभी नहीं सुनी थी मैंने। गाड़ी धीमें से शुरू हुई। धीरे धीरे उसने अपनी गति पकड़ी और बहुत निकलने लगी। पटरियों के दोनों तरफ के पेड़ द्रुतगति
से पीछे की तरफ भाग रहे थे। मुझे ये भागते नजारे बहुत सुंदर लग रहे थे। मुझे पहली बार पता चला कि रेलगाड़ी के लिए आम सड़क नहीं होती बल्कि लोहे
की पटरियां होती है जिनपर यह गाड़ी चल रही थी, कैसे? यह भी नहीं मालूम। अब मुझे शहर दिखाई दे रहे थेे , जगमगाते, भीड़भाड़ वाले, दौड़़ती भागती गाड़ियां, रेलवे स्टेशन पर मिलते चाय, पकौड़े, व अन्य सामान बेचते विक्रेता, चहल पहल, तरह तरह की आवाजें, जब भी कोई सामान बेचने वाला रेलगाड़़ी
में आता तो मन करता खरीद लूूंं, पर खरीद नहीं पा रहा था भला मामा के कहे बिना कैसे खरीद लेता।
हालांकि पिताजी ने कुछ पैसे दिए थे पर चाहकर भी नहीं खरीद सकता था। मैं स्वभाव से बहुत शर्मीला था इसलिए वैसे भी नहीं कह पा रहा था।
शहरों की जगमगाती रोशनी मन को मोह रही थी। स्वप्न लोक सा प्रतीत हो रहा था। जितना सुना था उससे कई गुना ज्यादा रोमांचक लग रहा था। रंग बिरंगी रोशनी में नहाया यह शहर मन को अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। माता-पिता के बिना मेरा यह सफर मिला जुला था। दिल्ली काफी रात को हम कमरे पर पहुंचे। सब थके हुए थे जल्दी में हल्का फुल्का खाना बना, खाकर हम जल्दी से सो गए।
यह सफर मेरा बहुत सुंदर था। माता-पिता के बिना था इसलिए कभी कभी मन भारी हो जाता था।
दाताराम।
