मैं एक सॉफिस्टिकेटेड भिखारिन हूँ !
मैं एक सॉफिस्टिकेटेड भिखारिन हूँ !
अरे ! इंसान होना तो बहुत बड़ी बात है, सच कहूँ, तो एक औरत भी नहीं हूँ। औरत होती, तो लाज से कहीं डूब मरती मगर मुझे तो वो भी नहीं आती। सब लाज - शर्म किनारे पर रखकर जन्म से लेकर अब तक बस भिखारियों की तरह माँगती ही जा रही हूँ, नि:संकोच हर समय, हर किसी से, हर हाल में, हर एक तरह...दे दो ? दे दो ? द्धिअर्थी संवादों की तरह इन दो शब्दों का अर्थ अगर सेक्स से लगाना चाहें तो लगा सकते हैं। जैसे कि, छोटे बच्चों को सिखाया जाता है कि पानी को मम - मम और खाने को हप्पा कहते हैं - क्योंकि बचपन में कठिन शब्दों का बोलना भी कठिन ही होता है ठीक उसी तरह अगर व्यक्ति उतना परिपक्व् नहीं है जितना की वो सेक्स जैसे गंभीर मसले पर गंभीरता से बात कर सकने के लिए होना चाहिए तो उसका छिछोरा होना व इन चालू वाक्यांशों का प्रयोग करना कुछ बुरा नहीं है...है न ? बेचारे ये दो शब्द !
आँख खुली, तब ही से माँ-बाप से कभी ये माँगा तो कभी वो माँगा। उन्होंने सदा यथासंभव अपने सामर्थ्य से बढ़कर ही मुझे दिया मगर मेरे भिखमंगेपन की नींव की पहली ईंट मेरे ही हाथों से वहीं से रखी गयी थी। फिर स्कूल में न जाने पर सहेलियों से होमवर्क माँगना और होमवर्क पूरा करने हेतु उनकी कॉपियाँ या मदद माँगना, साथ खेलने के लिए उनके सामने गिड़गिड़ाना, कोई गलती हो जाने पर भाई - बहिन से अपनी शिकायतें न करने के लिए हाथ जोड़ना, बिजली चले जाने पर - बरसात न आने पर - इन्द्रधनुष न निकलने पर भगवान से ये सब माँगना, और तो और बचपन में तो छुट्टी हो जाने के लिए नेताओं और टीचर्स की मौत की दुआ तक मांग लेती थी, अब क्या बताऊँ और क्या न बताऊँ ?
टीनएजर होने पर यानी थोड़ी बड़ी होने पर एग्जाम में अच्छे नंबर लाने के लिए भगवान से कितना कुछ माँगा...बता ही नहीं सकती...कोई हिसाब ही नहीं है ! उस उम्र में मन ही मन उस दौर के बाहुबली नायकों को भी चाहा - सराहा और मन ही मन माँगा कि काश ! कोई राजकुमार इस सिन्ड्रेला को भी मिल जाए...अजी, वो वक़्त था सेल्फ-कॉन्फिडेंस का, ऐसा कॉन्फिडेंस था कि जब - जब आईना देखती थी तो क्या मजाल कि आईना मेरी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कुछ बोल तो दे। भिखारिन की शर्म ये कॉन्फिडेंस पाकर थोड़ी - थोड़ी खुलने जो लगी थी।
जवानी की दहलीज़ पर कदम क्या रखे कि मेरे तो पर निकल आये और उड़ना शुरू हो गया, कभी मिलिट्री में जाने की बेताब तमन्ना तो कभी अपराधियों को बेनक़ाब करने की कुलबुलाती इच्छा, कभी नर्तकी बनने का अरमान तो कभी मिर्ज़ा ग़ालिब की तरह शायर बनने का जुनून, दिल के अरमान कुछ और - दिमाग के मशवरे कुछ और - माँ के अरमान कुछ और - मेरी नाक़ाबिलियत के नज़ारे कुछ और - कुल मिलाकर मेरी मांग कछु और, और वक़्त की मांग कछु और ! यहाँ आकर मांगना शुरू किया एक अच्छी - खासी , हटटी - कटटी , पढ़ी - लिखी भिखारिन ने। कुछ नयी माँगें ! कुछ नए अंदाज़ में...अब तक शर्म - हया हवा हो चुकी थी और मैं एक ज़िद्दी भिखारिन बन चुकी थी जो वक़्त की मांग थी.
सिंड्रेला को नायक तो नहीं न मिला पर खलनायक जरूर मिल गया। माँगा नहीं था, पर कहते हैं न कि बिन मांगे मोती मिले मांगन मिले न भीख...तो जो मिला उसे बिंध गया सो मोती समझ लिया। अब, भिखारिन की झोली में सब कुछ था पर उसमें छेद भी तो हो चुका था, अरे ! भई बचपन से लेकर जवानी तक माँगती रही, माँगती रही और झोली ऊपर तक भर गयी...छेद होना लाज़मी था...अफ़सोस काहे का ?
झोली फट ही गयी तो सब कुछ जो मिला था रेत की मानिंद उसमें से निकल गया और पता ही नहीं चला ! मैं भिखारिन फिर से इंसान बन सकती थी, पर नहीं, वो कहते हैं न, कि इंसान की फ़ितरत कभी नहीं बदलती सो मैं भी नहीं बदली बस मैंने भी अपना रूप बदल लिया और एक नए अवतार ने जन्म लिया - एक सुसंस्कृत - विनम्र - परिष्कृत - सभ्य मगर कुटिल - कमज़ोर - बेग़ैरत और पूरी तरह से प्रोफ़ेशनल भिखारिन ने...हाथ में रिज्यूमे लेकर नौकरी मांगनी शुरू की कभी इधर तो कभी उधर...कभी ऑफिस में अपनी हमेशा वाली सीट की माँग तो कभी नये केबिन के लिए मिन्नतें...कभी कंप्यूटर को सही करने के लिए गुहारें...कभी सैलरी स्लिप के लिए निवेदन वाली भीख तो कभी अपॉइंटमेंट लेटर के लिए सॉफिस्टिकेटेड तरीके वाली भीख...नौकरी के दौरान बिना वेतन वाली छुट्टी न लगे और वेतन तनिक भी न कटे, इसके लिए भीख मांगी, कभी इससे तो कभी उससे...बॉस से कंप्लेन या डिसकस करने के लिए जल्दी मीटिंग करके घर जाने की भीख...ये सब तो मामूली बातें हैं, गौर फरमाइयेगा कि मुझे तो अपनी मेहनत की कमाई तक के लिए महीनों भीख ही मांगनी पड़ी तब यकींन मानिये की मुझे तनिक भी लज़्ज़ा नहीं आई...एक नौसिखए भिखारी में और प्रोफेशनल भिखारी में यही तो फर्क होता है।
आप सोच रहे होंगे कि, कितनी भिखमंगी भिखारिन है ! छि: छि: ! पर, मेरी तरफ से भाड़ में जाइये अगर ऐसा सोचें तो क्योंकि, क्या आप कभी भीख नहीं न मांगते हैं ? बस में भीड़ होने पर अपनी या औरों की श्रीमती जी के लिए सीट की भीख, बिल जमा करवाते समय बाबू से जल्दी जमा करने की भीख, ट्रैफिक पुलिस वालों से जुर्माना न करने की भीख, स्कूल - कॉलेज वालों से एडमिशन की भीख, चोर या लुटेरों से जान की भीख, मनपसंद लड़की या लड़के से प्यार की भीख, प्यार छुप-छुप के किया तो उसे छिपाने की भीख, प्यार की सब हदें पार कर दी तो एबॉर्शन करवाने को डॉक्टर से भीख या न करवाने के लिए अपने प्रेमी से भीख, पहले शादी करने की भीख, शादी के बाद ध्यान रखने की भीख, शादी के बाद सुखी दांपत्य जीवन हेतु सेक्सुअल रिलेशंस में कामयाब होने हेतु कामदेव से भीख, शादी पश्चात संतान की भीख, संतान के बाद संतान के सुखों की भीख, ईश्वर से बुढ़ापा निरोगी रहने, हाथ - पैर चलते हुए उठा लेने, मरने के बाद मोक्ष मिलने की भीख...हम सब भिखारी नहीं हैं तो क्या हैं ?
लाल बत्ती पर भिखारियों को देखकर कुछ याद नहीं आता क्या आपको ? मंदिर की सीढ़ियों पर या मस्जिद के दालान पर से अपने - आपको बचाकर किन लोगों के बीच में से होकर गुजरते हैं आप ? तीज - त्यौहार पर, घर के नीचे से आवाज़ लगाने वाले या हर सोमवार या शनिवार को तेल मांगनेवाले बाबा को बड़ी देर के बाद कुछ इहलोक - परलोक का सोचकर १ - २ रुपये या तेल ही तो देते हैं आप ? मांगनेवाला कहकर - ट्रैन या बस में फ़कीर की दुआ का वज़न तौलकर, फिर उसकी मांग पूरी करते हैं आप - चंद सिक्कों की ? किस ग़लतफहमी का शिकार हैं आप ज़नाब ?...होश में आइये...ये सब तो खुले - आम भीख मांगते हैं...भिखारी के वेश में भिखारी ही हैं मगर मैं - आप क्या हैं ? सिकंदर - ए - आज़म या कुछ और ? आइये, आज, आपसे, आप ही की और मेरी मुलाकात करवाने की ज़ुर्रत करूँ...माफ कीजियेगा, आप और मैं भी इन लोगों में से ही एक हैं, मगर शरीफ़ज़ादों के नक़ाब में हैं, कुछ हमारे तबियत और मिज़ाज़ अलग हैं - कुछ हमारे और आपके भीख उर्फ़ नवाज़ों - करम माँगने के अंदाज़ - ए - बयाँ और हैं, लिल्लाह ! हमारी तो शरीफ़ाना तरीके से पेश हमारी माँगे भी क़ाबिल - ए - तारीफ़ हैं !
मगर, कभी भी न मिलने वाली मुझे, मेरी भीख की पुरज़ोर क़सम - हम लोग हक़ीक़त में पूरे - पक्के भिखारी ही हैं...मगर, ज़रा से सॉफिस्टिकटेड भिखारी ! क्या कहते हैं ?
