Prabodh Govil

Others

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मैं और मेरी जिंदगी -9

मैं और मेरी जिंदगी -9

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एक महीने के इस शिविर ने अनुभवों में मुझे लगभग पांच साल आगे बढ़ा दिया।

बैंगलोर से आने के बाद लोगों को वहां के अनुभव सुनाते हुए दिन यूं ही निकल जाता था। रिज़ल्ट की बधाइयां घर लौट कर भी बहुत सारी मिलीं। कुछ शिक्षक इस बात पर भी हैरान थे कि मैं पढ़ा कब, जो मुझे प्रथम श्रेणी मिली।

लेकिन मेरे पिता खुश होते हुए भी कुछ चिंतित से दिखाई दिए। वे एक रात मेरी मार्क्स शीट और पेंसिल हाथ में लेकर मेरे साथ बैठे और एक- एक विषय के अंकों की समीक्षा करने लगे।

मेरे पिछले विद्यालयों के टीचर्स को ये उम्मीद थी कि बोर्ड की परीक्षा में मेरा नाम राज्य की मेरिट लिस्ट में आयेगा। इस बात को लेकर उन्होंने अपनी उम्मीद मेरे पिता को भी बताई थी, किन्तु मेरिट में मेरा नाम न देख कर उन्हें थोड़ी निराशा ज़रूर हुई।

मैंने भी देखा और मेरे पिता ने भी, कि इस बार फ़िर अनिवार्य विषयों में तो मेरे अंक बहुत अच्छे हैं पर ऐच्छिक विषयों में अपेक्षाकृत उतने अधिक नहीं हैं। मेरे पिता ने ये भी कहा कि फिजिक्स स्कोरिंग विषय है और यदि मैं इसमें ध्यान दूं तो बहुत बेहतर कर सकता हूं।

हिंदी में तो मेरे अंक आशा से भी अधिक थे।

अब मैं ग्यारहवीं कक्षा में आ गया। उस समय ग्यारहवीं कक्षा ही स्कूल की आख़िरी क्लास होती थी।

प्रथम श्रेणी आने से मेरे उन अध्यापकों ने भी मुझे टोकना बंद कर दिया था जो मुझे अन्य एक्टिविटीज छोड़ कर मुख्य विषयों पर ध्यान देने के लिए कहा करते थे।

स्कूल में सत्र आरंभ होते ही मेरा ध्यान फ़िर इधर उधर जाने लगा। कुछ महीने ही बीते होंगे कि यूनाइटेड स्कूल्स ऑर्गनाइजेशन का नोटिफिकेशन जारी हुआ।

इस बार मुझे ये जान कर गहरी निराशा हुई कि उसमें उन छात्रों का भाग लेना प्रतिबंधित कर दिया गया जो लगातार तीन साल तक किसी स्पर्धा में भाग ले चुके हों।

किन्तु ये प्रावधान था कि वही छात्र यदि सेलेक्ट हो जाए तो किसी अन्य स्पर्धा में ज़रूर भाग ले सकता है।

मैंने रंग और ब्रश रख दिए। चित्रकला से मेरा मन बिल्कुल ही उचट गया।

अब संगीत, नृत्य, भाषण या निबंध लेखन शेष थे। मैंने इस बार चयन स्पर्धा में भाषण (डिबेट) में किस्मत आजमाने का फ़ैसला किया। लाइब्रेरी में बैठ कर विषय की तैयारी कर अपना भाषण स्वयं ही तैयार किया।

अपने एक दो अध्यापकों की थोड़ी मदद ज़रूर ली, पर अध्यापक कहते थे कि तुम फर्स्ट क्लास विद्यार्थी हो, क्यों अपने कैरियर से खिलवाड़ कर रहे हो? उनका मानना था कि ये सब तो उन छात्रों के काम हैं जिनका मन पढ़ने में नहीं लगता।

मैंने अपने मन को समझाया कि चयन नहीं हुआ तो सब छोड़ दूंगा,पर एक बार आजमा कर तो देखना ही है।

"संयुक्त राष्ट्र संघ" विषय पर हमें बोलना था और इसकी भूमिका के पक्ष या विपक्ष में डिबेट में अपनी बात रखनी थी।

जयपुर के कई स्कूलों के चुने हुए छात्र छात्राएं चयन के लिए आए थे। श्रोताओं से खचाखच भरा हॉल था।

पहला पुरस्कार मुझे मिला, साथ ही दिल्ली जाने का चौथा अवसर भी।

दिल्ली में मुझे आल इंडिया डिबेट में पहले ही वर्ष तीसरा पुरस्कार मिला। पहले स्थान पर बिरला बालिका विद्यापीठ, पिलानी और दूसरे स्थान पर होली एंजेल्स कॉन्वेंट स्कूल, मद्रास रहा। तीसरा स्थान संयुक्त रूप से दो स्कूलों को मिला था जिनमें एक हमारा भी था। व्यक्तिगत तीसरा पुरस्कार मुझे मिला।

स्कूल में लौट कर फ़िर से वाहवाही हुई। विद्यालय की तारीफ भी हुई।

लेकिन इस छोटी सी सफलता ने कई रास्ते और खोल दिए। विद्यालय में यदि कोई डिबेट या भाषण स्पर्धा का नोटिस आता तो उसकी जानकारी संबंधित टीचर मुझे दे देते और फ़िर या तो मैं खुद इसमें भाग लेने की तैयारी करता, या फ़िर छोटी कक्षाओं के जो छात्र इसमें भाग लेते, विषय वस्तु तैयार कराने में मैं उनकी सहायता करता।

एक दिन तो ऐसा भी आया कि एक ही टीम के दोनों लड़कों को पक्ष में भी मैंने ही भाषण तैयार करवाया और विपक्ष में भी।

अपने ही तर्कों को कैसे काटा जाता है, ये भी मेरे खुले विचारों ने मुझे सिखा दिया।

जब भी मुझे अपनी खुद की पढ़ाई का ध्यान आता, हमेशा मैं फिजिक्स की तैयारी की ही बात सोचता। जैसे जैसे क्लास आगे बढ़ रही थी, मुझे फिजिक्स में गणित की मात्रा भी बढ़ती दिखाई दे रही थी, इसलिए मैं और विषयों पर ध्यान न देकर फिजिक्स के बारे में ही सोचता।

विद्यालय में छात्र संघ भी दो भागों में बंटा हुआ था। एक विज्ञान परिषद का अध्यक्ष होता था और दूसरा प्रधानमंत्री पद होता था।

मेरे मित्रों ने अध्यक्ष पद के लिए मेरा नाम प्रस्तावित कर दिया। साइंस के टीचर्स ने इसे बिल्कुल पसंद नहीं किया और मुझे आगाह किया कि यदि तुम्हारे जैसे लड़के भी राजनीति में पड़ने लगेंगे तो जीवन में कुछ नहीं कर सकेंगे।

उनका कहना ये था कि ये तो उन लड़कों का काम है जिनका लिखने पढ़ने से कोई लेना देना न हो।

पर मेरे मित्र कहते थे कि मुझे कुछ नहीं करना पड़ेगा, मेरी विद्यालय में लोकप्रियता ऐसी है कि मैं बिना कुछ किए भी जीत जाऊंगा। कई बार स्कूल की प्रार्थना सभा में किसी न किसी कारण मेरा नाम बुलाया ही जाता था।

इस पद के लिए कुल छह लड़कों ने नामांकन दाखिल किया। एक लड़का तो खुद मेरे ही सेक्शन से था।

उसके पिता का शहर में प्रिंटिंग का बिज़नस था। उसने पोस्टर, कार्ड, स्टिकर्स, पेम्प्लेट्स आदि का अंबार लगा दिया।

मेरे मित्रों ने मेरे लिए हाथ के बने कुछ पोस्टर्स ही लगाए। उनमें से भी कुछ में तो मुझ से ही चित्रकारी करवाई। मेरे कुछ दोस्त सुबह शाम स्कूल के आसपास की कॉलोनियों में घर घर घूमे। कुछ उम्मीदवार स्कूटर मोटरसाइकल पर घूमते, पर मेरे मित्र पैदल ही प्रचार करते।

चुनाव से पहले सभी उम्मीदवारों को एक दिन प्रार्थना सभा में बोलने का मौक़ा भी दिया गया।

चुनाव में खड़े होने वाले लड़के तरह तरह के प्रस्ताव रख रहे थे। कोई कह रहा था कि अभी कैंटीन स्कूल परिसर के बाहर है, जीत गया तो वो उसे स्कूल के अंदर ले आयेगा। कोई कहता था परीक्षा की तैयारी की छुट्टी पंद्रह दिन की जगह एक महीने की करवा देगा। लड़के ऐसी बातों पर तालियां बजा देते थे। मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा, लेकिन ये ज़रूर कहा कि हमारा स्कूल आकार में राज्य का सबसे बड़ा विद्यालय कहलाता है, हम सब मिल कर इसे श्रेष्ठता में सबसे बड़ा बनाने की कोशिश करें।

मैं जानता था कि लड़कों ने किसी की बात ध्यान से नहीं सुनी है, वो तो हम सब के नाम और चेहरे देख कर वोट डालेंगे।

मैं चुनाव जीत गया।

इस जीत पर केवल बायोलॉजी के शिक्षक मित्तल साहब ने मुझे बधाई दी। हिंदी वाले भी बेहद आनंदित हुए। अंग्रेज़ी वाले कुछ शंकित से दिखे। पर फिजिक्स और केमिस्ट्री वाले अध्यापकों ने तो मुझे ऐसी निगाहों से देखा, मानो मन ही मन बोल रहे हों - बंटाधार !

इस जीत के बाद स्कूल में मेरी गतिविधियां और बढ़ गईं।

जब खेल प्रतियोगिता होती तो मेरी क्लास में मेरा जाना कई कई दिन तक नहीं हो पाता।

मुझे ये बहुत अच्छा लगता था कि मैं किसी खेल का भी अच्छा खिलाड़ी न होते हुए भी अपने स्कूल की टीमों के कप्तानों से चर्चा करता और वे मेरी बात मानते थे।

अपनी इस भूमिका में मैं कई खिलाड़ी लड़कों के निकट संपर्क में आया। जब मैं उन्हें सफ़ेद कपड़ों और सफ़ेद जूतों में देखता तो मुझे वे बड़े प्यारे और आकर्षक लगते।

फ़िर मैं सोचता कि मैं जूते क्यों नहीं पहन पाता। मुझे क्या होता है? असुविधा सी क्यों होती है? क्या बुरा लगता है? घृणा किस बात से होती है?

ऐसे में स्वस्थ खिलाड़ी लड़के मुझे और भी आकर्षक लगते। पर मन ही मन मैं उनसे क्षमा मांगता कि मैं उनके पैरों में पहने जूते नहीं स्वीकार कर पा रहा हूं।

ठीक ऐसा ही मुझे हाथ की कलाई में बंधे धागे के साथ भी होता था। यहां तक कि राखी के त्यौहार पर बहनों द्वारा बांधे गए धागे भी मैं तुरंत ही खोल दिया करता था।

यही पूजा पाठ के दौरान पंडितों द्वारा कलाई पर बांधे गए धागों के साथ भी होता था। मैं या तो बंधवाता ही नहीं था, या किसी न किसी बहाने से तुरंत खोल देता था।

हाथ में राखी बांध कर या डोरा बांध कर खाना खाने में तो मुझे घृणा की हद तक असुविधा होती थी। और यदि मेरे साथ या पास बैठा व्यक्ति हाथ पर धागा लपेटे है तो भी मुझे असुविधा होती थी।

कुछ लोग धागे इस तरह बांधे रखते थे कि उनके डोरे लंबे लंबे लटके रहते थे।

यदि ये लंबे लटके धागे खाते समय दाल, सब्ज़ी, खीर, रायते आदि में जाते थे तो ऐसे व्यक्ति के साथ बैठ कर खाना खाने में मुझे बहुत परेशानी होती थी।

कभी कभी तो ऐसा दृश्य देख कर उबकाई आने लगती थी।

इसी कारण मेरी आदत समूह की जगह अकेले बैठ कर खाना खाने की रही।

यदि किसी त्यौहार या पूजा में मेरे हाथ पर भी धागा बंधा हो तो मेरी कोशिश ये रहती थी कि उसकी गांठ इस तरह टाइट बंधी हो कि धागे का सिरा लटके नहीं।

जो लोग हाथ पर बंधे धागे को गन्दा या बहुत पुराना होने पर भी नहीं बदलते थे, वे भी मेरे प्रिय कभी नहीं बन पाते थे।

बचपन में एक लड़की की मित्रता में मैं जब गप्पें मारना सीख गया तो एक बार उसके पूछने पर उसे मैंने बताया कि पिछले जन्म में मैं तोता था। तब मेरी मृत्यु एक डोरी से गला घुट जाने के कारण ही हुई थी, इसलिए मैं डोरी से डरता हूं।

ये बात मेरे पिता ने भी सुन ली तो वे तुरंत मुझसे पूछने लगे कि ये बात मुझे किसने बताई।

मैं शरमा कर भाग गया क्योंकि मैं झूठ बोल रहा था। उसी लड़की की तरह, जो मेरे साथ पढ़ती थी और झूठ बोलती थी।

वैसे बचपन में मैं तोते का चित्र बहुत सुंदर बनाता था इसलिए उस लड़की ने और मेरे पिता ने भी एक बार मेरे झूठ पर गंभीरता से ध्यान ज़रूर दिया।

कभी कभी मुझे लगता था कि वो छोटी लड़की मुझे खुद को बिना कपड़ों के नंगी दिखाना चाहती है। क्योंकि मैं जब उसके घर खेलने जाता था तो वो जल्दी से अपने आंगन में फ्रॉक उठा कर पेशाब करने बैठ जाती थी, और ऐसे में हमेशा अपनी कोई न कोई चीज़, जैसे कलर बॉक्स, रुमाल या पेन आदि मुझे पकड़ा देती ताकि मैं वहीं खड़ा रहूं, जाऊं नहीं।

उसी ने झूठ बोल कर मुझे जीवन में पहली बार डांट पड़वाई थी।

विद्यालय के वार्षिक उत्सव में भी मेरा सहभाग बढ़ चढ़ कर रहा। जब सांस्कृतिक कार्यक्रम की तैयारी लड़के करते तो मैं भी लंबे समय तक उनके साथ रहा करता।

इस साल के टूर्नामेंट्स में भी मैंने कई गतिविधियों में भाग लिया और मुझे बहुत सारे पुरस्कार मिले।

डिबेट तैयार करने के दौरान मैं जो आलेख लिखता, उन पर भी निबंध के रूप में मैंने कुछ पुरस्कार पाए। एक प्रतियोगिता में मुझे राज्य स्तरीय स्पर्धा में प्रथम पुरस्कार मिला। मेरी भाषा पर अच्छी पकड़ बनती चली गई।

ये सब किसी दिए की बाती के बुझने से पहले झिलमिलाने जैसा सिद्ध हुआ।

ग्यारहवीं बोर्ड की परीक्षा में मेरी केमिस्ट्री विषय में सप्लीमेंट्री आ गई।

मेरे कुल अंक जैसे तैसे प्रथम श्रेणी के तो बने,किन्तु मैं क्लीयर पास नहीं हो सका।

गनीमत ये थी कि परीक्षा का परिणाम आने तक मैं स्कूल छोड़ चुका था,इसलिए मुझे दोस्तों, अध्यापकों, साथी छात्रों के वो हैरत भरे चेहरे नहीं देखने पड़े जो उन्होंने मेरे पास न हो पाने पर बनाए होंगे।

उन अध्यापकों से भी मैं फ़िर कभी नहीं मिला जिन्होंने मुझे पढ़ाई में ध्यान देने के लिए बार- बार आगाह किया था।

लेकिन इस अप्रत्याशित परिणाम से भी मेरा मनोबल टूटा नहीं, क्योंकि केवल एक रसायन शास्त्र विषय को छोड़ कर मेरे अंक बाक़ी विषयों में अच्छे ही थे।

यदि ये माना जाय कि स्कूल की दूसरी गतिविधियों में शामिल होने के कारण मेरा परिणाम खराब हुआ तो प्रश्न ये था कि बाक़ी विषयों में मेरे अंक अच्छे क्यों अाए।

मेरे पिता बहुत दूरदर्शी और संवेदन शील थे, उन्होंने एक ओर तो मुझे सांत्वना दी कि मैं चिंता न करूं, दूसरी ओर मन ही मन ये भी भांप लिया कि मेरा रुझान कला विषयों की ओर है।

उन्होंने मुझे कहा कि मैं अगस्त माह में होने वाली पुनः परीक्षा की तैयारी करूं।

वे स्वयं मुझे बताए बिना मेरे प्रधानाचार्य जी से मिले।

फ़िर वो दोनों बोर्ड के उच्चाधिकारियों से मिले और मेरे परीक्षा परिणाम से असंतुष्ट होकर मेरी कॉपी की दोबारा जांच कराई।

साल बीतने की ख़ुशी, नया सत्र शुरू होने की खुशी, कॉलेज में जाने की ख़ुशी, सावन के मौसम में नया परिसर और नए मित्र खोजने की ख़ुशी...सबकी बलि चढ़ गई, और मुझे दिन रात केमिस्ट्री रटनी पड़ी।

मेरे पुराने अध्यापक के पास पढ़ने जाते समय उनसे सीख मिली कि मुझे इतनी सी बात से विचलित नहीं होना चाहिए और उसी लक्ष्य की ओर देखते हुए आगे बढ़ना चाहिए जो मैंने अपने लिए निर्धारित किया था।

गर्मी की छुट्टी में मैं अपने ताऊजी के परिवार से मिलने भाई बहनों के साथ देहरादून गया। उससे पहले कुछ दिन मैं, मेरा छोटा भाई और मेरी बड़ी बहन दिल्ली भी रहे।

दिल्ली में मेरी एक दूर के रिश्ते की बहन रहती थीं। उन्हें मेरा ग्यारहवीं कक्षा का रिज़ल्ट सुन कर कोई फर्क नहीं पड़ा। उन्हें केवल इतना पता था कि मैं बहुत सुंदर चित्र बनाया करता हूं। उन्होंने अपने पेटीकोट के कपड़े पर कशीदाकारी करने के लिए मुझसे कुछ डिज़ाइन बनवाए।

मुझे महसूस होता रहा कि परीक्षा परिणामों से सबको फर्क नहीं पड़ता। मैंने भी अपने मन से इस बोझ को उतार दिया।

दिल्ली की भीड़ भरी बस में एक बार हम सब भाई बहन भटक कर बिछुड़ गए।

हुआ ये कि मेरे रिश्ते के एक भाई हम लोगों को अपने घर ले जाने के लिए आए थे। जब हम लोग जा रहे थे, एक भीड़ भरी बस में चढ़ने की कोशिश में एक भाई और बहन तो चढ़ गए पर मैं और एक भाई नीचे ही रह गए।

बाद में हमने ऑटो रिक्शा से बस का पीछा किया और आगे जाकर अगले स्टॉप पर उतरे उन लोगों से मिल गए।

मुझे लगा कि ज़िन्दगी ऐसी ही है।

इसकी चाल पर विस्मित होने का कोई लाभ नहीं है।

देहरादून में एक यादगार अनुभव हुआ। एक दिन मैं और मेरी चचेरी बहन घर के पास के बाज़ार में पैदल ही जा रहे थे कि हल्की बारिश शुरू हो गई। पानी से बचने के लिए हम एक दुकान के छज्जे के नीचे खड़े हो गए।

वहीं मेरी नजर पड़ी एक काग़ज़ पर, जिस पर किसी पज़ल का कोई चित्र सा बना हुआ था।

उठा कर देखा तो वो ब्रुक बॉन्ड चाय की एक प्रतियोगिता का फार्म था, जिसमें ऊपर कुछ सिर तथा नीचे कुछ धड़ बने हुए थे। वेशभूषा के आधार पर सही सिर को सही धड़ से मिलाना था। साथ ही ब्रुक बॉन्ड चाय के बारे में एक स्लोगन लिखना था।

मैंने फार्म उठा लिया और बारिश थमने के बाद हम लोग घर आ गए।

इसे पूरे मनोयोग के साथ भर कर मैंने भेज दिया।

मेरे बड़े भाई ने टिप्पणी की, कि रिज़ल्ट बिगड़ गया है परन्तु अभी तक इन चीज़ों की लत नहीं छूटी।

मैंने भाई की टिप्पणी का बुरा नहीं माना क्योंकि उसे बहुत सालों के बाद मुझे नीचा दिखाने का मौक़ा मिला था।

छुट्टियों में खूब घूमे हम सब।

लौट कर मैंने केमिस्ट्री की पूरक परीक्षा दी।

अब मैंने बी एस सी प्रथम वर्ष में एक नामी और प्रतिष्ठित कॉलेज में एडमिशन ले लिया।

ये एडमिशन अस्थाई था और ये मेरा परीक्षा परिणाम आने के बाद ही स्थाई होने वाला था। इस जोखिम को सिर पर लाद कर डेढ़ महीना निकाला।

परिणाम आया और मेरा प्रवेश पास हो जाने से स्थाई हो गया।

ये एक मायूसी भरा अकर्मण्यता का साल था, जिसमें न कोई रोचक गतिविधि थी और न ही कोई बड़ा लक्ष्य।

केवल पास हो जाने के बाद फ़िर प्री मेडिकल परीक्षा में बैठना था।

पिछले कुछ सालों से मेरा मित्र रहा एक लड़का भी इसी कॉलेज में था।

उसके माता पिता नहीं थे। वो अपने रिश्तेदारों के परिवार में रहता था।

मैं इन दिनों उसके साथ कुछ ज़्यादा रहने लगा।

मुझे उससे केवल इसीलिए सहानुभूति नहीं थी कि उसके माता पिता नहीं हैं। बल्कि वो मुझे अच्छा लगता था।

वो मुझसे कुछ बड़ा था। बहुत सज संवर कर रहता था। जहां रहता था उस घर में साथ रहते हुए भी उसे अलग कमरा मिला हुआ था। कमरे की स्थिति भी ऐसी थी कि उसमें बाहर से प्रवेश था। वो कभी आए, कभी जाए, किसी को कोई व्यवधान पैदा नहीं होता था। मेरा काफ़ी समय उसके साथ कटने लगा।

उसके साथ रह कर मुझे लगता था कि माता पिता के मर जाने से कहीं कम दुःख दाई है रसायन शास्त्र में सप्लीमेंट्री आना।

हम बहुत करीब आ गए। बहुत करीब। काफ़ी क़रीब !


क्रमशः



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