Meenakshi Kilawat

Others

5.0  

Meenakshi Kilawat

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लेकिन वह पराई है

लेकिन वह पराई है

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मुझे यकीन नहीं होता कि मैं पराई हूं। परंतु, यहीं सत्य है। जैसे-जैसे बड़ी होती गई वैसे-वैसे पराये पन का एहसास होता गया। घर के बड़े बुढे कहते, तुम पराया धन हो आज नहीं तो कल चली जाओगी।


हम जब छोटे थे कितना हमको अच्छा लगता था, गिर गिर के उठते थे। इतना ज्यादा रोते थे। फिर हमें मम्मी-पापा गोद में दौड़कर उठा लेते थे। बड़े प्रेम से सहलाते

उस जगह को, जहां अब हम गिरे उस जगहपर फूंक मारकर पाव पटककर उस जमीन को डांटते थे।


आकाश में हाथ उठाकर चिड़ियॉं दिखाते थे। हमें कहते, देखो ऊपर चिड़िया देखो।


जिधर पापा हाथ दिखाते उस तरफ देखने लग जाते थे, एवं फिर से गदगद होकर हंसने लग जाते थे, फिर से खेलने लग जाते थे।


मुझे याद आता है वह बचपन, कई सालों पहले जब मैं छोटी थी, मुझे बिच्छू ने डंख मार दिया था। मैं जब जोर जोर से रोने लगी, तब मम्मी ने मुझे अपने गोद में उठा लिया बहुत प्यार किया, लेकिन जलन बहुत तेज थी, इसमें लगातार फूट-फूट कर रोए जा रही थी, पापा घर पर नहीं थे। वह कोई काम से दूसरे गांव जा रहे थे तो बस स्टैंडसे उन्हें वापस बुलवाया।


पापा ने कुछ इलाज किया। मेरे साथ मम्मी-पापा दोनों रो रहे थे। मैं तो गोदीसे नीचे उतर ही नहीं रही थी। लगातार 3 घंटे मुझे बिच्छू की जलन होती रही, तब तक मम्मी-पापा मुझे लेकर घूमते रहे। आज भी मुझे याद है कि मम्मी पापा ऐसे ही होते हैं। वहां माया-ममता का प्यार भरा खजाना होता है।


लेकिन अचानक क्या हो जाता है कि हमारे इतने प्यारे होने के बावजूद हमें दूर कर देते हैं। क्या यही उसकी पहचान है? एक स्त्री होने का यही मापदंड है? 

  

स्त्री होना क्या पाप है?

आँखों में अश्रू का सागर लिए नदियॉंसी चुपचाप प्रवाहित होती है। दिल में मचलती तडप दिलके चिथडोमें बंटकर इक आह लिए वह सारा जीवन अपना दायित्व समझकर जीनेकी कोशिश करती है।


गांव-गलियों की सखियोंकी याद लिए अपनी मंजिल तय करती है। पुराणनी यादोंको समेटकर नई राहके सपनोंमें खो जाती, घर के सारे काम काज कर अष्टभुजा बन जाती है।


सम्मान पानेकी मनमें आशा लिए रहती है। बच्चों को सरस्वती की तरह शिक्षादिक्षा देती, हर कार्यमे बचत करने की कोशिश कर लक्ष्मी बनती है, अन्नपूर्णा बनकर  

सबका उदर शांत करती, कोई संकट आ जाए तो चंडीका बन जाती है, हमेशासे आचल में दुध आँखोमें पानी लिए सारी जिंदगी सहती रहती है।


फिर भी वह वह पराई होती है। नौकरी या बिजनेस करने वाली भी परस्वाधिन होती है। वह सपने में भी स्वतंत्रता हासिल नहीं कर सकती। क्योंकि वह माया-ममता की जाल में फस कर असहाय होती है। स्त्री अपने संस्कार खोना नहीं चाहती, चाहे उसे अपनी जान भी क्यों ना गवाना पड़े। संसार के सागर में कई बार मर मर कर वह अपना जीवन जीती है। स्त्रीजाति का महिमा का सिर्फ बखान होता है, मगर वास्तव में बचपन से ही उसे पराया धन माना जाता है, यह बात बड़ी खेदजनक है।


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