कुछ पन्ने ज़िन्दगी के
कुछ पन्ने ज़िन्दगी के
सुबह सुबह चिड़ियों की सुर भरी मधुर आवाज़ से बस नींद टूटी ही थी कि अचानक आंगन से माँ की आवाज़ आयी।
"अरे उठ भी जा सूरज सिर पर चढ़ आया है, कितना सोयेगा।"
अब ऐसी बातें सिर्फ कहानियाँ ही बन कर रह गयी है।
कभी सोचा है? कि ऐसा क्यों!
शायद कभी नहीं, हाँ आखिर क्यों सोचोगे क्या फ़र्क पड़ता है तुम तो खुश हो दूर किसी शहर में अपनी पत्नी और बच्चों के साथ। किराए का छोटा सा घर जहां तुम अपनी पत्नी और बच्चों के साथ बड़ी मुश्किल से रह रहे हो। गाँव का वो बड़ा घर जिसके बीच में एक बड़ा आँगन, घर के बाहर छोटा सा बगीचा अब वहां सिर्फ तुम्हारे माँ बाप और तुम्हारे बचपन की यादें है। कोई जब कहता है कि गाँव में माँ बाप अकेले कैसे रहते होंगे तो तुम्हारा जवाब होता, अरे वो गाँव में रहे है यहां शहर की भीड़ और रफ्तार से मेल नहीं बना पायेंगे।
अरे भाई कभी खुद को उनकी जगह रख कर देखा है अगर नहीं देखा है तो देख लो क्योंकि हो सकता है तुम्हारा भविष्य इससे भी ज्यादा बुरा हो। तुम कम से कम अपने माँ बाप से मिलने तो चले जाते हो पर तब क्या हो जब तुम्हारे बच्चे तुमसे मिलने तक का न सोचें।
हाँ बहुत कड़वा बोलता हूँ पर कभी सोचा है की मैंने ऐसा क्यों कहा?
ये सारी बाते कोई कहानी नहीं है किसी ऐसे की ज़िन्दगी है जिसका नाम तो मुझे नहीं पता पर महीने में एक बार उससे मिलना ज़रूर हो जाता था।
उम्र कोई 78 साल के आस पास थी घर में 3 लड़के, 1 लड़की और पत्नी थे आज अकेला है वो पेट पालने के लिए फ्राइड राइस बेचता है। दो लड़कों की शादी हो गयी वो शहर के दूसरे छोर पर जा कर बस गए, छोटा लड़का फर्नीचर बनाने का काम करता है, पत्नी को गुजरे 4 साल हो गए।
और लड़की उसने तो कमाल ही कर दिया बीमा बोल कर घर के कागज़ सामने रख दिए मकान अपने नाम करवा लिया बैंक एकाउंट में जमा रुपये भी निकलवा लिए। तीन बार शादी कर चुकी है और हर बार सब कुछ छोड़ कर चली आती है। इतना सब बताने के बाद उसकी आँखों में आँसू थे। समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहूँ अब। आज एक साल हो गया है इस बात को और जब भी वहां से गुज़रता हूँ तो वो स्कूल तो वही दिखता है बस वो ठेला और उसका मालिक नहीं।
पता नहीं क्या क्या था कितने राज़ और दर्द लिखे थे उसकी ज़िन्दगी के पन्नों में।
