कुछ नहीं
कुछ नहीं
रात के 2 बज रहे थे और महेश बाबू की आंखों में नींद नहीं थी। उनकी बंद आंखों में पुरानी यादें सिनेमा की रील की तरह तेजी से गुजर रही थीं।अपने पुश्तैनी घर में रहते हुए उन्होंने अपने संयुक्त परिवार के लिए कई संघर्ष किए थे,परिवार में आने वाली छोटी बहुओं ने भाइयों को अपनी दृष्टि से देखने का सलीका सीखा दिया था ।छोटे भाई की भाषा भी अब आहत करने लगी थी,ये महेश बाबू सहन नही कर सकते थे।२वर्ष पहले वे अपने बच्चों को लेकर किराए के मकान में आ गए थे ।उन्होंने हमेशा अपने स्वाभिमान से जीवन जीया था,लेकिन अब जब जीवन अंतिम चरण की ओर सरक रहा था , वो चाहते थे कि अपने हृदय में बसे सभी चित्रों को सबके सामने खोल कर रख दे ।लेकिन अब उनके त्याग और संघर्ष के छाया चित्रों से किसी को रुचि नहीं रहीथी। महेश बाबू जो कभी ऊर्जावान हो कर हर समस्या को अपने ऊपर ले कर चला करते अब वे अकेले अपने कमरे में निस्तेज हो गए थे।
मस्तिष्क में गुजरने वाले चित्रों घटनाओं से अब वे स्वयं भी निजात पाना चाहते है,लेकिन कैसे?यही सोचकर पास पड़ी डायरी में अपनी समस्या लिखना चाहते हैं,कुछ सोचते हैं । लिखने से समस्या की तह तक आसानी से पहुंचा जा सकता है।वे डायरी में लिखते हैं, आखिर मुझे क्या चाहिए?उत्तर की खोज में अतीत की गहराइयों में डूब जाते है । आखिर उत्तर में लिखते हैं,कुछ नहीं ।अब वे हल्का महसूस करते हैं। उत्तर पा कर सभी द्वंद मिट जाते हैं।
