कर्म की बात

कर्म की बात

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मैं और मेरा एक सहपाठी सिद्धार्थ सी.एस.आई. आर. एन.ई.टी. की परीक्षा देकर पुणे से मुंबई के लिए रेल में सवार हुए। सायंकाल हो रहा था और गाड़ी अपने गंतव्य की ओर लगभग आधी दूरी तय कर चुकी थी । हम दोनों में जो एक बात समान थी वो मितव्ययिता, इसीलिए दोनों लोग रेलगाड़ी की तृतीय श्रेणी के डिब्बे में सवार हुए थे जिसमें आमतौर पर बहुत अधिक भीड़ होती है ।अतः हम लोग खड़े होकर ही यात्रा कर रहे थे ।कुछ लोग जो बहुत पहले से सवार थे, वो बैठे हुए थे । गाड़ी लोनावला से निकली तो उसमें कुछ भिक्षुक वगैरह भी चढ़ गए । सभी अपने-अपने तरीके से याचना कर रहे थे । परन्तु हम लोगों में ये बात भी समान थी की दोनों किसी को अकारण ही पैसे नहीं दिया करते । अतएव हमने किसी को भी पैसे नहीं दिया क्योंकि हमें पता है कि जो ये भिक्षुक हैं, ये हमसे ज्यादा धनवान होते हैं ।

थोड़ी देर में एक किन्नर भी पैसे मांगते हुए आया । हमने पूर्ववत उसे भी पैसा देने से इंकार कर दिया । मैंने उससे विनोद करते हुए कहा, " जो लोग सीट पर बैठे हैं ,उनसे माँगो।" उसने मेरी बात का उसी अंदाज़ में जवाब दिया, " ये तो कर्म की बात है, उन लोगों ने कुछ अच्छा काम किया होगा , सो उन्हें बैठने को मिला हैं; जिन्होंने अच्छा काम नहीं किया ,उन्हें सीट न मिली । मैंने अच्छा कर्म नहीं किया था सो मैं हिजड़ा (किन्नर) बन गया, ये तो कर्म की बात है ।" मैं हतप्रभ रह गया । जिस कर्म की बात साधु, सन्यासी और विद्वान लोग करते हैं, वो बात उसको भी पता है; परन्तु फिर भी वो अपना कर्म नहीं बदल रहा । मैं थोड़ी देर के लिए विचारों में खो गया। भीड़ की शोरगुल में भी मुझे सबकुछ शांत सा लग रहा था। रेलगाड़ी की छुकछुक की आवाज आसपास की पहाड़ियों से टकराकर वापस मेरे कानों में गूंज रही थी । चिड़ियाँ गगन में अपने लक्ष्य की ओर जा रही थीं । मेरे अंतर्मन में बस एक ही विचार घर किये हुए था ," कर्म की बात " ।


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