हीरो चुलबुल कुमार

हीरो चुलबुल कुमार

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सन्डे का दिन था सब दोस्त इकठ्ठे हो कर गप्पे लड़ा रहे थे और ठहाके से भरे किस्से के तीर छोड़े जा रहे थे। वो किस्से जिसे जीतनी बार सूना जाए उसका मज़ा कम नहीं होता। एक दोस्त ने फिल्म ‘दबंग’ से जुड़ा एक किस्सा सुनाया तो मेरे जहन में से ‘बिरजू’ का किस्सा पके हुए आम की तरह गिर पड़ा।
मैं ट्रेन से काम के सिलसिले में मायानगरी मुम्बई जा रहा था। ट्रेन पहले से ही देरी से चल रही थी और ऊपर से तेज मई महीने की खतरनाक गरमी! मुम्बई जाने का प्लान अचानक से ही बन गया था इसलिए मै रिज़र्वेशन नहीं कर पाया और मुझे जनरल सीट से मुसाफरी करनी पड़ी। सब पैसेंजर अपनी दुनिया में बीज़ी थे।
कोई ट्रेन से बहार देख रहे थे, कोई मोबाइल के छोटे से तालाब में गोते लगा रहे थे, तो कुछ जान पहचान के बिना ही बातें कर रहे थे, कोई न्यूज़ पेपर पढ़ रहे थे, तो कुछ वहीं पेपर को तिरछी नज़र करे पीछे से पढ़ रहे थे जैसे कोई लड़का दूसरे लड़के की आनसर सीट से कॉपी कर रहा हो! उसमें मैं भी शामिल था आखिरकार मैंं लेखक जो ठहरा!
वहा एक आदमी भी था जो दुनिया से बेखबर अपनी बेग को तकिया बना कर ऐसे सोया हुआ था जैसे कोइ बच्चा सो रहा हो! खर्राटें तो ऐसे ले रहा था जैसे बादल गरज रहे हो! छोटे-छोटे खर्राटें तो ट्रेन की खट-खट में ही अनसुने हो जाते थे। मैं ही नहीं पर वहाँ बैठे सब मुसाफिर उसको नोट कर रहे थे। वो शायद आकर्षण का केन्द्र बन गया था। कुंभकरन के जैसे खर्राटें, शर्ट से बहार झांकती फटी पुरानी बनियान, पेन्ट से उछल रहा उसका कच्छा! जनाब ऐसे पैर फैलाए सोये थे जैसे एक टिकट से तीन जगह पर फतेह हासिल कर ली हो।
ट्रेन दोपहर की गरमी को चीरती आगे बढ़ रही थी। फिर ना जाने क्यू ट्रेन धीरे-धीरे धक्के खा कर रुक गई। ट्रेन क्या रुकी लोगो की सांसे रुक गई। सुरज गरमी के तेज अंगारे छोड़ रहा था। उसमें ट्रेन के पंखे यहाँ ऑक्सीजन देने का काम रहे थे हमारी हालत एक अनार और सौ बीमार वाली हो गई थी। सबकि हालत खराब थी सब ट्रेन की चलने की राह देख रहे थे। किसी से सुनने में आया की कुछ तकनीकी गड़बड़ी कारण ट्रेन रुकी है और लगभग 1 घंटे बाद चलेगी। ये सुनते ही यात्री के पसीने छूटने लगे। ट्रेन पहले से ही देरी से चल रही थी अब ये रुकावट!
दूसरे से मांगकर दो बार न्यूज पेपर पढ लिया था। सोशल साइट्स के जरिए में मोबाइल की बैटरी आँधी तो ख़त्म कर चुका था। करे तो अब क्या करे? क्या 1 घंटा ऐसे ही काटना पड़ेगा? क्या 1 घंटा ये
बुझे-बुझाये से पेसेंजर के चहेरे देखने पड़ेंगे?
मैं आजु-बाजु हो रही गति विधि को देख कर अपना मन को बलहा रहा था। एक मोबाइल पर बिजनेस की बातें कर था तो एक अपनी माशूका से बतिया रहा था, तो कोई रेलवे की लापरवाही पे लेक्चर झाड़ रहा था और
कुछ मेरी तरह भी तो जो दूसरे की हरकतों के ऊपर ध्यान रख कर ध्यान बाँट रहे थे। कातिल गरमी में जहां सब बेहाल हो उठे थे वहाँ आकर्षण के केन्द्र बने महाशय की भी नींद टूटी।
’क्या हुआ भाई?’ - आधी-अधूरी सोई आंखो से जन समुदाय को ध्यान में रखकर उस आदमी ने पूछा।
पर जन समुदाय ने सवाल का जवाब नहीं दिया जो आम तौर पर करते हैं।
’अरे लल्लन बम्बई आ गई क्या?’ – उसने फिर आवाज़ लगाई।
मुम्बई को ‘बम्बई’ बोलने की तुनक तो वैसे ही थी जैसे अमिताभ बच्चनजी ने फिल्म ‘डॉन’ में बोली थी।
लल्लन मेरे बाजु में ही बैठा था। लल्लन ने बिना मुँह खोले ही ना की मुंडी हिलाई। शायद लल्लन ने मुँह में पान ठूस रखा था उसके शर्ट के उपर गिरे छींटे ठूसे हुए पान की गवाही दे रहे थे। भला कौन मुँह खोल के बनारसी पान का मजा बिगाड़ेगा?
फिर ट्रेन क्यों रुकी? – उसने फिर पूछा।
जवाब देने के लिये लल्लन को मुँह खोलने की नौबत आए उससे पहले लल्लन ने ऐसे मुँह फेर लिया जैसे उसने कुछ सुना ही नहीं हो। पर मुझे गुस्सा आ रहा था सोचा की मैं ही जवाब दे दूँ की ‘लीडर की तरह क्या सवाल पूछ रहा है? और कितनी देर तक चमकादड़ की तरह दिन में सोयेगा?   पर मैं चुप रहा। फिर भाई साब अपनी नींद को स्वाहा करके नीचे की दुनिया में आए। नीचे आकर एक मुसाफिर को एक्सक्यूज़मी बोल कर जरा सी जगा बना ली।
‘मेरा नाम बिरजू है’ अपना इंट्रोडक्शन देते हुए कहा। पर लोगों ने उसका नाम अनसूना कर दिया।
‘हम बम्बई हीरो बनने जा रहे हैं’ अपना हुलिया दुरुस्त करके बोला।
‘हीरो?’ किसी ने बिरजू की बात को गोर किया।
‘हाँ बम्बई हॉलीबुड में’।
जो बॉलीवुड को हॉलीबुड कहता हो! जिसे बॉलीवुड हॉलीवुड का फर्क नहीं पता हो! वो चला है हीरो बनने! मैं तो अंदर से जल रहा था।
’इट्स टू होट यु नो?’ आंखो में चश्मा लगा कर और न्यूज पेपर को पंखा बना कर बिरजू बोला।
चश्मा नया ही लिया होगा क्योंकि चश्मे में अभी भी प्राइज टैग का लेबल लटक रहा था।
सब पेसेंजर उसकी स्टाइल देखकर मन ही मन हंस रहे थे। फिर किसी ने उसकी फ़िरकी लेनी चालू की। जब तक ट्रेन चालू नहीं होती तब तक टाइम पास करने के लिए कुछ तो होना चाहिए ना?
‘माफ कीजिए पर ये चश्मा आप की पर्सनेलिटी पे सूट नहीं हो रहा है’ - एक आदमी ने फ़िरकी को ज़ोर देते कहा।
’थेन्क यु! सुझाव देने के लिए पर ये बात मैंंने पहले से ही नोट कर ली है। ये चश्मा तो हमारे दोस्त लल्लन के कहने पे लिया था ना! अरे लल्लन मैंने कहा था ना ये चश्मा मेरे पे जचेगा का नहीं -बिरजू ने चश्मा उतार के कहा।
‘माफ कीजिए पर हीरो बनने के लिये एक्टिंग भी आनी चाहिये!’  वही आदमी ने कहा जिसने फ़िरकी लेनी शुरू की थी।
‘एक्टिंग?’  बिरजू मुँह टेढ़ा बनाके बोला।
’मतलब की कोई नौटंकी में रोल किया है?’  एक पेसेंजर ने पूछा।
’नौटकी में? अरे एक्टिंग-एक्टिंग की है हमने! एक फिल्म के गाने में चान्स मिला था और एक विज्ञापन में भी काम किया है’  बिरजू अपने मुँह अपनी तारीफ़ करके बोला।
'ओह्ह? कौन सी फिल्म के गाने में काम किया था और कौन सा विज्ञापन?’  मेरे बाजूवाले ने बिरजू की बातों में दिलचस्पी दिखाकर पूछा।
’अरे फिल्म के नाम से क्या मतलब! मेला का गाना था और हम मेला में बच्चों को झूला झुलाने का रोल निभाया था -बिरजू ऐसे बोला की जैसे बहुत बड़ा तीर मार लिया हो।
इतना सुनते ही वहाँ बैठे पेसेंजर को बिरजू की एक्टिंग का अंदाजा आ गया।
‘अब विज्ञापन के बारे भी तो बताओ?’  किसी ने फ़िरकी की गति को बढ़ाते कहा।
’अरे वही! मोदीजी की ‘स्वच्छता अभियान’ वाला विज्ञापन! उसमें लोटे लेके हम ही तो बैठे थे – बिरजू ने स्टाईल मारके कहा।
इस बार वहाँ बैठे सभी के मुँह से ठहाके छूट गए। लोटे लेकर बैठने को एक्टिंग कहने वाली बात किसी एक्टर ने सुनली होती तो बिना ढिशूम... कि आवाज़ में एक मुक्का मारके आँखें सूजा दे चुका होता।
’माफ कीजिए पर एक्टिंग के साथ नाच-गाना भी आना ज़रूरी है’ - वही आदमी बोला जो बात की शुरुआत में ‘माफ कीजिए’ का तकिया कलाम लेता है।
’नाच यानी डांस? ‘
’हाँ, भाई वही डिस्को डांस?’ - बिरजू को चने के झाड़ पे चढ़ाते बोला।
’डांस में तो हम किसी कम नहीं है क्यों लल्लन?’
लल्लन ने मुँह को गुब्बारा बनाकर बस मुंडी हिला दी।
‘आज भी गाँव में शादी हो और हम नहीं नाचे! ऐसा हो नहीं सकता था समझो उसकी शादी अधूरी रह गई और नागिन डांस का तो क्या कहना! सब बाराती सफरे बनते और मैंं एकलौता नाग!
जब तक बैन्ड वाले बजाते थक ना जाए तब तक हम नाचते रहते है! ये तो कम्पार्टमेंट में जगा की तकलीफ है वरना एक-दो स्टेप तो यूँही दिखा देते। - बिरजू अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनके बोला।
‘क्यु लल्लन?’
लल्लन ने फिर मुंडी हिलाई। लल्लन तो मानो बिरजू की बातो का जस्टिफिकेशन के लिए बैठा हो बस बिना बात को समझे मुंडी हिलाये जा रहा था।
सही है ना? ठीक बोला ना भाई? बराबर है ना? – ऐसे शब्दों को बोलकर कुछ लोग खुद की बातों को दूसरे से वेरीफ़ाइ कराते हैं। खैर हम उन लोग की बात नहीं कर रहे हैं हम तो बात सुन रहे थे बॉलवुड... सॉरी बोलीबूड के उभरते सितारे बिरजू की। ट्रेन भले रूकी हो पर बिरजू की बातों से ठहाके की शीतल हवाएं ज़रूर चल रही थी। बड़ा अच्छा टाइम कट रहा था।
‘माफ कीजिए पर ‘बिरजू’ नाम जचा नहीं।’
‘माफ कीजिए पर आप ‘माफ कीजिए’ बहुत बोलते हैं पर आपने सवाल बहुत बढ़िया किया है।
‘बिरजू तो हमें गाँव वाले प्यार से बुलाते हैं वैसे हमने फिल्मों वाला नाम भी रखे है - ‘चुलबुल कुमार’ कैसा है?’ 
बिरजू उर्फ़ ‘चुलबुल कुमार’ बोला।
‘हाँ नाम तो बढ़िया है पर कही सूना हुआ लगता है?
‘सही पकडे! दरअसल हम सलमान खान और अक्षय कुमार के बहुत बड़े फेन है इसलिए नाम रख दिया ‘चुलबुल कुमार’ फिर से हसीं फैल गई।
बिरजू उर्फ़ चुलबुल कुमार को चने के झाड़ पे चढाया जा रहा था और वो था के अपने रटे रटाये किस्सो की पोटली खोले जा रहा था। हमें क्या है हमारा तो टाइम पास हो रहा था।
‘अच्छा चुलबुल जी?’ - एक यात्री ने पूछा।
बिरजू तो ऐसे चहक उठा जैसे चुलबुल नाम किसी ने पहेली बार पुकारा हो!
‘जी बताइए?’ - बिरजू ने बड़े विनम्र भाव से पूछा।
‘मुंबई में जान पहचान दाल नहीं ग़लती’
‘अरे! है ना जान पहचान फिल्मों में! मेरे जीजा है ना! वह फिल्मों के गाने में धुँआ उड़ाने का काम कर करते है।
सब के चेहरे पर प्रश्न चिन्ह सा भाव आ गया।
‘अरे आप सब मुझे क्यों घूर-घूर के देख रहे हैं? मैंं उस धुएं की बात कर रहा हूँ जब हीरो हिरोईन ड्यूएट गाना गाते हैं तब बैकग्राउंड में हलका सा सफेद धुँआ उड़ता रहेता है वो’ - बिरजू ने प्रश्न चिन्ह को दूर करते कहा।
मैं समज गया के वो आर्टिफिशयल धुएं की बात कर रहा था।
‘बस एक बार डायरेक्टर से मुलाकात तो होने दो! पैर पकड़ लूँगा और तब तक नहीं छोड़ूगा जब तक रोल नहीं दे देते
‘इरादे काफी पक्के है! - एक यात्री ने कहा।
तो फिर! - बिरजू अक्कड़ से बोला।
‘पर कोई फिल्म का डायलॉग तो सुनाओ? - एक यात्री ने डायलॉग की डिमांड की।
‘बोलो कौन सी फिल्म का सुनाऊ? - बिरजू ने ऐसे कहा जैसे सभी फिल्मों के डायलॉग मुँह ज़ुबानी याद हो।
मान गये उसके ओवर कॉन्फिडेंट को!
‘जुरासिक पार्क फिल्म का सुना दो’ - यात्री ने कहा।
‘जुरासिक पार्क फिल्म का? ये कौन सी फिल्म थी? ये लल्लन तुझे पता है क्या? - बिरजू ऐसे मुँह बनाकर पूछा कि किसी ने उसे कड़वी दवाई पिला दी हो और बाद में पानी भी ना दिया हो। सब एक दूसरे को देखकर मन ही मन में हँस रहे थे क्योंकि मछली अपने ही जाल में फँस जो गई थी।
‘ठीक है दूसरी फिल्म ‘दीवार’ का डायलॉग सूना दो’ - यात्री ने डिमांड को बदलते हुए कहा।
‘ठीक है सुना देते हैं’ - बिरजु को जानी पहचानी फिल्म का नाम सुनकर आंखो में चमक आ गई।
‘जाओ पहले उस आदमी का साइन लेकर आओ जिसने मेरे हाथ पे ये लिख दिया था ....मेरा बाप चोर है'
‘रिस्ते में तो हम तुम्हारे बाप लगते हैं, नाम है विजय दीनानाथ चौहान’
‘आज मेरे पास बिल्डिंग हैं, प्रॉपर्टी है, बैंक बेलेंस है, बँगला है, गाडी है .....तुम्हारे पास क्या है?
‘मुंछे हो तो नाथूलाल जैसी वरना ना हो’
‘हम अंग्रेजों के ज़माने के...’
‘रुको रुको भाई! एक ही झटके में सारे डायलॉग बोल दोगे क्या?’ - किसी बिरजू को रोकते कहा।
साले ने इतने बेमिसाल डायलॉग की धज्जियां उड़ा दी थी वो तो अच्छा हुआ की किसी ने उसे रोक लिया नहीं तो में उसका मुँह दबोच लेता आखिर मैंं भी एक लेखक हूँ। वो ऐसे खुश हो रहा था की जैसे हम सब यहाँ उल्लू बैठे हो और वो सब से सयाना। उसका नाम चुलबुल कुमार नहीं उल्लू कुमार होना चाहिए। मज़ा तब आया के जब उसने बिना फरमाइश पे गाना सुनाने लगा।
अब डायलॉग के बाद गाने की शामत आने वाली थी। लोग वाह वाह करने लगे तो बिरजू महाराज को ऐसा जोश आ गया की भाई साहब और ज़ोर से गला फाड़के के गाने लग गए।
‘जब भी कोई लड़की देखूं मेरा दिल दिवाना बोले ओले ओले ओले ओले’
यहाँ गरमी के गोले बरस रहे थे और जनाब को ओले ओले सुझ रहा था। मन तो ऐसा हो रहा था जलता एक गोला मुँह में डालके मुँह बंध कर दूँ पर मैं फ़िर शांत रहा।
अब गाना गा रहा था या चिल्ला रहा था ये सब जानते थे। धीरे-धीरे उसकी आवाज़ एक कम्पार्टमेंट को चीरती दूसरे कम्पार्टमेंट में जाने लगी। वो ट्रेन में गानेवाले गवैयों से भी घटिया गा रहा था। मन में हो रहा था की छुट्टे पैसे उसके हाथ में देकर अपनी अंदर जल रही आग को शांत कर दूँ। धीरे-धीरे बिरजू को देखने भीड़ जमा होने लगी। लोग देखने आए थे या फिर समझाने कि ये आदमी पागल है या कोई दौरा पड़ रहा है। क्योंकि जहाँ इतनी तेज धूप में सभी लोगों का दम घुटा जा रहा हो वहां पे ये भाईसाब गाना गा रहे थे। शायद किसी ने मेरी मन की बात सुनली हो वैसे किसी ने बिरजू हाथ में छुट्टे पैसे डाल दिए'
एक ने पैसे दिए तो दूसरे ने भी बिरजू पर रहमत बरसाई और चिल्लर की बुंदे गिरने लगी।
ये सब देखकर सब की हंसी छूट गई।
‘बस करो भाई! अब इतनी भी अच्छी आवाज़ नहीं है’ - बिरजू ने पैसे जेब में डालते कहा।
भाईसाब अब भी सातवें आसमान से उतरे नहीं थे।आखिरकार हम सब समझ चुके थे की डायलॉग भले अमिताभ बच्चन के बोलता हो पर खुद बोल बच्चन ज़रूर था।
तभी एनाउसमेंट हुआ की ट्रेन 10 मिनिट में रवाना हो रही है। ये सुनते ही तड़पती मछली को समुंदर मिल गया हो वैसे यात्रीगण उछलने लगे और चेन की साँस लेने लगे। बिरजू उर्फ चुलबुल कुमार को यात्री ने ऐसे नज़र अंदाज कर दिया जैसे थोडे समय पहले बिरजू नाम का तमाशा दिखाने आया था और तमाशा फ्री में देखकर लोग कैसे एक साइड से निकल लेते हैं।
बिरजू ने फिर से लोगो की वाह-वाही बटोरने के लिए चश्मा लगाया, दो-चार मिक्सींग डायलोग भी बोले और एक-दो बेसूरे गाने भी गाये पर किसी यात्री ने बिरजू का भाव नहीं पूछा।
थोड़ी देर के बाद उसकी हवाईयाँ उड़ने लगी और बिरजू फिर से चमकादड़ की तरह सो गया जहाँ से वो उतरा था। वो तो सो गया था मगर उसकी बातें अभी भी दिमाग में जग रही थी।
जब भी ऐसी चुलबुली बात निकलती है तब चुलबुल कुमार ज़रूर पप्रकट हो जाते हैं।


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