हार गणपति का, और बचपन मेरा!
हार गणपति का, और बचपन मेरा!
आज कई वर्षों बाद सूर्योदय के पहले जाग कर हम (पत्नी और मैं) फूल चुनने गए अपने गणपति के लिए। अरे हां ये तो बताना शुरू में ही था कि गणपति आए हुए हैं अभी और उनके लिए ही तो फूल चुनने निकले थे हम। रात में ही तय हुआ कि सुबह जल्दी उठकर फूल चुनने जाना है और मेरा कोई बहाना नहीं चलेगा। तो तय समय के १५ मिनट बाद न नुकर करने के बाद मैं जागा और फिर हम फूल चुनने निकल पड़े और निकल पड़ा यादों का सिलसिला।
यहाँ हैदराबाद में जिधर हम रहते हैं, हमारे फ़्लैट के नीचे ही एक चांदनी (रात की रानी) के फूल का पेड़ है। चांदनी के फूल पाँच सफ़ेद पंखुड़ियों वाले सुंदर फूल हैं जो सदा खिलते हैं और एक पेड़ दिनभर में न जाने कितने ही सुंदर फूल हमें देते हैं। तो बात निकली फूल चुनते हुए और मैंने कहना शुरू किया:
तुम्हें पता है, भोपाल में, अपने घर भी हुआ करता था एक रात की रानी का पेड़ ये बात तब की है जब घर छोटा था लेकिन आँगन में पेड़ बड़े थे। उस पेड़ में भी बहुत फूल आते थे। जब भी गणपति का त्योहार शुरू होता तो वो पेड़ हमारे साथ साथ पड़ोसियों और अलसुबह पन्नी लेकर निकले फूल चोरों (ठीक वैसे ही जैसे हम अभी कर रहे हैं) को भी निराश नहीं होने देता था। वैसे इसका एक कारण यह भी था कि जैसे हमारा घर छोटा और आँगन में कुछ पौधे थे वैसे ही मुहल्ले में कुछ और घर भी थे जिस कारण हमारी रात रानी पर भी ज़्यादा बोझ न पड़ा। धीरे धीरे लोगों के घर बड़े और आँगन छोटे हुए और सारा बोझ हमारी रात रानी पर आ गया। पर तब भी चिंता की कोई बात नहीं थी। अब अलसुबह उठकर हम कुछ लोग (सामने रहने वाला सोनू, लालम, कभी कभी रेशमा, प्रभा आदि) फूल चुनने निकल पड़ते मुख्य सड़क पर क्योंकि तब भी "सड़क भले ही कुछ कम चौड़ी थी लेकिन फूल बहुत हुआ करते थे सड़क को दो भागों में बांटने वाली पट्टी पर" ।
हम फूल चुनते और घर आकर माला बनाते। मैं अक्सर शाम को सादी वाली माला बनाता क्योंकि सुबह फूल चुनने के बाद इतना समय नहीं बचता था कि माला बनाई जाए। अरे भाई स्कूल भी तो जाना पड़ता था। तो फूल पानी में भिगा दिए जाते और स्कूल से आने के बाद माला बनाई जाती।
रेशमा को ये चुग्गे (जिसमें माला के एक छोर पर फूलों का गुच्छा होता है और फिर दोनों ओर फूल बराबर होते हैं) वाली माला बनानी
आती थी और मुझे वो माला बहुत पसंद थी। रेशमा से कह कर पहले तो मैंने माला उससे बनवाना शुरू की फिर धीरे धीरे रेशमा से सीख कर मैं ख़ुद ही बनाने लगा।
"अच्छा तो तुम्हें माला बनानी आती है? हट झूठे।" पत्नी ने बात काटते हुए कहा।
मैंने कहा: हाँ, बिलकुल आती है।
तब तो आज बप्पा के लिए हार तुम ही बनाओगे: पत्नी ने कहा।
ठीक है: के उत्तर के साथ मैंने फिर यादों के पिटारे में से कुछ खोजना शुरू कर दिया और बात करते–करते सूर्य नारायण अवतरित हो गए और फिर पत्नी ने कहा कि चलो अब "तुम्हारे स्कूल का टाइम हो जायेगा फिर" साथ में पूजा किये बिना मैं तुम्हें स्कूल न जाने दूंगी।
"हाँ मेरा स्कूल आज स्कूली शिक्षा ख़त्म किए लगभग १३ वर्षों बाद भी जारी है और यह मैंने चुना है।"
बहरहाल लगभग १५ वर्षों बाद आज यह माला जब मैंने बनाई तो पत्नी के आश्चर्य और खुशी का ठिकाना नहीं रहा। वह बहुत खुश थी। और मैं भी। कुछ कारणों से दसवीं के बाद से मैंने घर पर गणपति नहीं बैठाए थे और हमारी शादी के बाद दोबारा हमने शुरू किया दो साल पहले किंतु तब हमारा भी घर बड़ा हो गया था और रात रानी अब नहीं थी। हार खरीदकर बप्पा को चढ़ाए जा रहे थे क्योंकि सड़क भी अब चौड़ी हो गई थी और फूलों के लिए कोई जगह न थी। हम इस गणपति पर भोपाल में नहीं हैं और गणपति भी हमारे साथ यहाँ विराजे हैं।
तस्वीर को देख बस यही विचार मन में कौंध रहा है:
कि क्यों घर बड़े हो गए?
और क्यों ही सड़कें चौड़ी हो गई?
और क्योंकर ही हम भी बड़े हो गए
और क्यों ही बचपन छोटा हो गया?
पर जो भी हो बप्पा,
हमने देखे छोटे घर
और बड़े आँगन।
हमने देखे आँगन में पेड़
पेड़ में फल और पेड़ पर फूल भी।
हमने देखी भले ही सड़कें पतली
पर बीच की पट्टी पर लगे फूलों पर
हमने देखी उड़ती तितली।
हमने देख लिया लगभग वह सब कुछ
जो देखा हमारे बड़ों ने
पर क्या जैसा था हमारा बचपन
क्या वैसा ही होगा
अगली पीढ़ी का ?
सवाल छोड़ गया मेरा बचपन...
हार गणपति का,
और बचपन मेरा
ऐसा ही हो इनका बचपन...