Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
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Atyab Mohammad

Others

3.0  

Atyab Mohammad

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ए जर्नी विथ बिहारी बाबू

ए जर्नी विथ बिहारी बाबू

4 mins
60


(नोट रचना जागरूकता और मौलिकता पर बल देती है)

सुबह का वक्त था और मैं अपने घर से दिल्ली जाने के लिए रेलवे स्टेशन पर पहुंचा और रेलवे के पूछताछ केंद्र पर पहुंच कर ट्रैन के बारे में मालूम किया। तो पता चला के आज सुबह की ट्रैन लेट है। और कोई नई ट्रैन जो सप्ताह में एक बार ही चलती थी। आज स्टेशन पर रूक कर जाएगी। मैने उसी का टिकट ले लिया और प्लेटफार्म पर ट्रैन का इंतज़ार कर ने लगा। स्टेशन पर ट्रेन लेट होने की वजह से लोगो की काफी भीड़ इकट्ठी हो गयी। प्लेट फार्म पर लोगो की भीड़ बढ़ ने लगी। सुबह सुबह की ताजी हवा के साथ कुछ लोग अखबार पढ़ कर समय काट रहे थे तो कुछ नौजवान मोबाइल फ़ोन के साथ व्यस्त थे। 

तभी स्टेशन के घोषणा केंद्र से पता चला की जो ट्रैन आज रेलवे स्टेशन पर रुकेगी वो ट्रैन छपरा एक्सप्रेस है जो बिहार से आ रही है। ये सुनते ही लोग थोड़े उत्साहित हो गए मैने वह कुछ लोगो से इसका कारण भी पूछना चाहा पर कुछ पता नहीं चल सका। कुछ लोग जो दैनिक यात्री थे कह रहे थे अब कोई चिंता नहीं अब तो सीट पक्की तो कुछ कह रहे थे अब दिल्ली आराम से जाएँगे। मैने सोचा शायद ट्रैन खाली हो जो ये लोग ऐसा कह रहे है। कुछ मिनटों बाद ट्रैन की आवाज़ सुनाई दी और ट्रेन प्लेटफॉर्म पर आकर लग गयी। लोगो ने भागना शुरू किया और डिब्बे के अंदर पहुँच गए। मैं भी न जाने कैसे ट्रैन में चढ़ पाया अंदर पहुँचा तो देखा ट्रैन खचा खच भारी थी सोचा डब्बे से उतर जाऊं पर उतरना भी इतना मुश्किल था जितना चढ़ना। अब मैने उसी डब्बे में जमा रहना सोचा और जैसे तैसे ट्रैन के डिब्बे में के बीच एक सीट के नज़दीक खड़ा हो गया, मैने देखा की ट्रैन में पैसेंजर्स के बीच एक अजीब सी मानसिकता थी बिहार के लोगो को लेकर, ट्रैन जैसे आगे बढ़ी वैसे ही लोग उनसे कहने लगे "चल भाई आगे हो जा,चल थोड़ा सरक, अबे हट, नही तो दूँगा एक ज़ोर से अजीब सा माहौल उस डिब्बे का हो गया और वो लोग अपनी जगह से हटने भी लगे परन्तु उनमें से कुछ महिलाओं और बच्चों को जगह दे रहे थे तो कुछ मानो युद्ध को तैयार।

पूरे तीन घंटे उन लोगों ने सब सहा, मैं भी हम इंसानों का ये रूप देखकर असमंजस में था के ये क्या हो रहा है। क्या ये भी हमारा रूप है आखिर वो लोग बिहार के ही सही पर उन्होंने भी तो टिकट का पैसा दिया होगा, और वो भी तो यही यही देश की संपत्ति पर उतना ही हक़ रखते है जितना कोई और ये सवाल हमे खुद से पूछने की ज़रूरत है के हम ये क्या कर रहे है ? ये सब आज भी हमारे भारत हो रहा था ये सब में देखकर हैरान भी था के आज हम समानता की बात करते है और लोगो को अलग अलग बाँट देते हैं। बिहार के लोग जिन्हे हम आम भाषा में बिहारी कहते हैं उन्हें हम निम्न श्रेणी में रखते हैं क्यों हम लोग अपने देश के एक इतने बड़े वर्ग के लोगो को इतना निम्न स्तर का, क्यों समझते है। में मानता हूँ की इस सब के दोषी कुछ हद तक खुद बिहार के लोग भी हैं। उनकी वेश भूषा, पहनावा, बोलचाल ,उनके बैठने के तरीके भी बड़े अजीब से थे न तो सर में कंघा नहीं स्वच्छ वस्त्र और नहीं साफ़ सफाई ये सब चीज़े भी उन्हें थोड़ा सा अलग बना रही थी हालांकि सब का एक जैसा हाल नहीं था पर ज़्यादातर लोगो का हाल यही था। हमारे मस्तिष्क में जो चित्र एक विशेष वर्ग के प्रति बन गई है उसके ज़िम्मेदार हम लोग ही है। हमे ये भी सोचना चाहिए के इतने बड़े और भारत के सबसे बड़े मज़दूर वर्ग के प्रति कुछ तो सम्मान रखना चाहिए। उनकी इस स्थित के ज़िम्मेदार हम है या वो खुद ये तो पता नही पर किसी की स्थिति को सुधारने और उन्हें जागरूक तो हम कर ही सकते है। इन्ही सब सवालों के साथ मैने अपना सफर तय किया और सोचता रहा के ये भी तो देश के नागरिक है अगर आज भी हम लोग इस तरह की मानसिकता अपने मस्तिष्क में लेकर घूम रहे है तो हम चाहे कितनी भी उन्नति कर ले शायद हम मनुष्य तो बन जाए पर इंसान नही बन सकते।

अगर आज आज़ादी के 70 सालों के बाद भी किसी वर्ग की ये दशा है तो ये गंभीर विषय है। इस यात्रा ने मुझे बहुत कुछ सिखाया और मैने मानव के दो रूप देखे एक सक्षम और दूसरा असक्षम। और आश्चर्यजनक बात ये थी के दोनों वर्ग एक ही माता के पुत्र थे (भारत माता के) इस पूरी यात्रा को मैने नाम दिया "ए जर्नी विथ बिहारी बाबू।"


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