द्वंद्व-युद्ध - 7

द्वंद्व-युद्ध - 7

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साढ़े तीन बजे रमाशोव के पास रेजिमेंट का एड्जुटेंट, लेफ्टिनेंट फिदरोव्स्की आया। यह एक ऊँचा और, जैसा कि रेजिमेंट की महिलाएँ कहती थीं, रोबीला नौजवान था, ठंडी आँखों वाला, उसकी घनी मूँछें किनारों से कंधों तक जाती थीं। कनिष्ठ अफ़सरों के साथ वह काफ़ी शालीनता का, मगर कठोर-प्रशासनिक व्यवहार करता था, किसी से भी दोस्ती नहीं करता था और फौज के अपने ओहदे पर उसे बड़ा गर्व था। कम्पनी के कमांडर्स उसकी ख़ुशामद किया करते।

कमरे में घुस कर उसने फ़ौरन आँखें सिकोड़ कर रमाशोव की दयनीय स्थिति का जायज़ा ले लिया। सेकंड लेफ्टिनेंट, जो इस समय पलंग पर लेटा था, फौरन उछला और लाल पड़ते हुए जल्दी जल्दी अपनी जैकेट के बटन बंद करने लगा।

 “मैं आपके पास रेजिमेंट कमांडर के आदेश से आया हूँ,” फिदरोव्स्की ने रूखी आवाज़ में कहा, “कृपया तैयार हो जाइए और मेरे साथ चलिए।”

“ माफ़ी चाहता हूँ। बस, अभी तैयार हो जाता हूँ। क्या सिविलियन ड्रेस पहन लूँ? माफ़ कीजिए, मैं घर के कपड़ों में हूँ।”

 “ओह, परेशान न होइए। फ्रॉक-कोट। अगर आप इजाज़त दें तो मैं बैठ जाऊँ?”

 “आह, माफ़ कीजिए। प्लीज़, बैठिए। क्या चाय लेंगे?” रमाशोव ने जल्दी से कहा।

 “नहीं, शुक्रिया। प्लीज़, जल्दी कीजिए।”

वह कोट और दस्ताने उतारे बिना कुर्सी पर बैठ गया, और, जब तक रमाशोव बिना बात के परेशान होते हुए, बौखलाते हुए, हड़बड़ाते हुए, अपनी गन्दी कमीज़ के कारण शर्मिन्दा होते हुए कपड़े पहनता रहा, वह पूरे समय सीधे, बग़ैर हिले डुले, अपनी तलवार की मूठ पर हाथ रखे पाषाणवत् चेहरे से बैठा रहा।

 “क्या आप जानते हैं कि मुझे किस लिए बुलाया गया है?”

अड्जुटेंट ने कंधे उचका दिए, “अजीब सवाल है। मैं भला कैसे जान सकता हूँ? मुझ से बेहतर तो ये, निःसंदेह, आपको ही पता होना चाहिए। तैयार हैं? आपको सलाह दूँगा कि तलवार वाले बेल्ट को शोल्डर स्ट्रिप के नीचे से पहनें, ऊपर से नहीं। आप तो जानते हैं कि रेजिमेंट कमांडर को यह अच्छा नहीं लगता, ऐसे तो, चलें।”

गेट के पास गाड़ी खड़ी थी, दो हट्टे कट्टे, ऊँचे फ़ौजी घोड़ों वाली। अफ़सर उसमें बैठकर चल पड़े। शिष्ठतावश रमाशोव एक कोने में सिकुड़ने की कोशिश कर रहा था, जिससे कि एड्जुटेंट को बैठने में असुविधा न हो, मगर उसका तो मानो इस ओर ध्यान ही नहीं था। रास्ते में उन्हें वेत्किन मिला। उसने एड्जुटेंट को सेल्यूट ठोका, मगर फौरन ही उसकी पीठ पीछे, मुड़कर देखते हुए रमाशोव को एक ख़ास, मज़ाहिया इशारा किया, जिसका मतलब शायद यह था, “ क्यों, भाई, ले चले तुझे पूछताछ के लिए?” और भी कई अफ़सर मिले। उनमें से किसी ने ध्यानपूर्वक, किसी ने अचरज से, और किसी किसी ने तो व्यंग्य से रमाशोव की ओर देखा, और वह उनकी नज़रों के नीचे मानो सिकुड़ने लगा।

कर्नल शूल्गविच ने रमाशोव को फौरन नहीं बुलाया: उनके कमरे में कोई व्यक्ति था। आधे अंधेरे प्रवेश कक्ष में इंतज़ार करना पड़ा, जहाँ सेबों की, फ़िनाइल की गोलियों की, हाल ही में पॉलिश किए फर्नीचर की और कोई अजीब सी, अप्रिय सी गंध आ रही थी, जो खाते-पीते, सलीक़ेदार जर्मन परिवारों के यहाँ कपड़ों और चीज़ों से आती है। प्रवेश कक्ष में पैरों को झटक कर रमाशोव ने कई बार दीवार में चमकीली ऐशवृक्ष की फ्रेम जड़े शीशे में स्वयँ को देखा, और हर बार उसे अपना चेहरा भद्दा-बदरंग, बदसूरत और कुछ अकृत्रिम सा प्रतीत हुआ, फ्रॉक कोट- काफ़ी उतरा हुआ, और शोल्डर स्ट्रैप- बेहद गंदे लग रहे थे।

पहले तो कर्नल के कमरे से सिर्फ कमांडर की गहरी, एकसुर, भारी आवाज़ सुनाई देती रही। शब्द तो समझ में नहीं आ रहे थे मगर गुस्साए लहजे से यह अंदाज़ लगाया जा सकता था कि कर्नल बड़े आवेश और क्रोध से किसी को ज़बर्दस्त डाँट पिला रहा है। यह पाँच मिनट तक चलता रहा। फिर शूल्गविच अचानक चुप हो गया, किसी की कँपकँपाती, मिन्नत करती आवाज़ सुनाई दी, और फिर अचानक, एक क्षण के बाद, रमाशोव ने साफ़ साफ़ सुने भयानक लहजे में कहे गए गर्वीले, तिरस्कार और अपमानयुक्त शब्द, “ ये आँखे फाड़ फाड़ कर मेरी ओर क्या देख रहे हो? बच्चे, बीबी? थूकना चाहता हूँ मैं तुम्हारे बच्चों पर! बच्चे पैदा करने से पहले, सोचना चाहिए था कि उन्हें खिलाओगे कैसे, क्या? अहा, अब – ग़लती हो गई, कर्नल महाशय। कर्नल महाशय आपके मामले में ज़रा भी गुनहगार नहीं है। आप, कैप्टेन, अच्छी तरह जानते हैं कि अगर इस समय कर्नल महाशय आपको क़ानून के हवाले नहीं करते तो मैं अपनी नौकरी के प्रति गुनाह करूँगा। क्या s s s s? मेहरबानी करके ख़ामोश रहिए! ये ग़लती नहीं, गुनाह है। आपकी जगह फ़ौज में नहीं है, बल्कि आप ख़ुद ही अच्छी तरह जानते हैं, कि कहाँ है। क्या?”

चिरौरी करती, मरियल आवाज़, फिर से कँपकँपाई, इतनी मरियल कि उसमें इंसान की आवाज़ जैसी कोई चीज़ ही नहीं थी। “हे भगवान, यह सब क्या है?” रमाशोव ने, जो अपने बदरंग चेहरे को शीशे में देखते हुए मानो उससे चिपक गया था, और उसे वहाँ न पाकर, यह महसूस करते हुए कि उसका दिल कैसे फिसल रहा है और दर्द लिए फड़फड़ा रहा है, सोचा।“ हे भगवान, कितना भयानक ।”

दयनीय आवाज़ काफ़ी देर तक बोलती रही। जब वह थमी तो दोबारा कमांडर की गहरी आवाज़ गूँज उठी, मगर अब वह काफ़ी शांत और नर्म थी, मानो शूल्गविच अपने क्रोध को चीखों से बाहर उंडेल चुका था और सत्ता की अपनी प्यास को दूसरे का अपमान करके बुझा चुका था।

उसने रूखेपन से कहा, “ठीक है, आख़िरी बार। मगर या-द रखना, ये आख़िरी बार है। सुन रहे हो? इसे अपनी लाल लाल, शराबी नाक पर टांक लो। अगर मेरे पास दोबारा शिकायत आई कि तुम नशे में धुत हो रहे हो। क्या? ठीक है, ठीक है, जानता हूँ तुम्हारी कसमें। अपनी कम्पनी को इन्स्पेक्शन के लिए तैयार रखो। कम्पनी तैयार न रही तो तुम्हारी...! एक हफ़्ते बाद मैं ख़ुद आऊँगा और देखूँगा। ख़ैर, और मेरी सलाह सुन लो, सबसे पहले तुम सिपाहियों का पैसा वापस कर दो, उनका हिसाब-किताब बराबर कर दो। सुन रहे हो? ये कल ही हो जाना चाहिए। क्या? तो, मुझे इससे क्या? करते रहो पैदा। इसके बाद, कैप्टन, मैं आपको और नहीं रोकूंगा। अभिवादन करता हूँ।”

अन्दर कमरे में बगैर आत्मविश्वास के, पंजों के बल, जूतों की आवाज़ करते हुए कोई घिसटता हुआ दरवाज़े की ओर बढ़ा। मगर उसे फ़ौरन कमांडर की आवाज़ ने रोक लिया जो एकदम काफ़ी गंभीर हो गया था, ताकि आवाज़ में कृत्रिमता न झलके, “रुको, रुको, यहाँ आओ, शैतान की काली मिर्चदानी। कहीं तुम यहूदियों के पास तो नहीं भाग रहे? हाँ? प्रोमिसरी नोट लिखने? ऐह, तुम, बेवकूफ़, बेवकूफ़, ठस दिमाग़। भा-ड़ में जाओ, शैतान तेरा गुर्दा खा जाए। एक, दो। एक, दो, तीन चार..तीन सौ। इससे ज़्यादा नहीं दे सकता। जब हो सके, लौटा देना छि: थू, क्या गंदगी कर रखी है तुमने, कैप्टेन!” अपनी आवाज़ को लगातार ऊँचा उठाते हुए कर्नल दहाड़ा।“ फिर कभी ऐसा करने की हिम्मत न करना! ये नीचता है! ख़ैर, मार्च, मार्च, मार्च! शैतान के पास जाओ, शैतान के पास। मेरा सैल्यूट! ।”

लाल चेहरा, नाक पर और कनपटियों पर पसीने की बूंदें और घबराया हुआ चेहरा मोड़े, छोटे कद का कैप्टेन स्वेतोवीदव बाहर निकल कर प्रवेश कक्ष में आया। उसका दाहिना हाथ जेब में था और थरथराते हुए नए कोरे कागज़ों (नोटों) को करकरा रहा था। रमाशोव को देखकर उसने नज़ाकत से चलने की कोशिश की, जोकर की तरह-कृत्रिम ढंग से ही-ही करके हँसा और अपने गीले, गरम, काँपते हुए हाथ से सेकंड लेफ्टिनेंट से तपाक से हाथ मिलाया। उसकी आँखें तनाव से और बदहवासी से गोल गोल घूम रही थीं और साथ ही रमाशोव को टटोल भी रही थीं, कहीं उसने कुछ सुन तो नहीं लिया?

 “दरिंदा! शेर जैसा!” बेतकल्लुफ़ी से और आहत स्वर में, कमांडर के कमरे की ओर देखते हुए वह फुसफुसाया। “मगर, कोई बात नहीं!” स्वेतोवीदव ने जल्दी जल्दी, नैराश्यपूर्ण ढंग से दो बार सलीब का निशान बनाया।“ कोई बात नहीं। तेरा लाख लाख शुक्रिया, भगवान, शुक्रिया, भगवान!”

 “ब-न्दा-रे-न्का!” दीवार के पीछे से कम्पनी कमांडर चिल्लाया, और उसकी भारी आवाज़ उस इमारत के कोने कोने में व्याप्त हो गई और, ऐसा लगा मानो उसने प्रवेश कक्ष के पार्टीशन की पतली पतली दीवारों को हिला कर रख दिया हो। अपनी असाधारण आवाज़ पर भरोसा होने के कारण वह दफ़्तर में कभी भी घंटी का इस्तेमाल नहीं करता था। “बन्दारेन्का! वहाँ और कौन है? अन्दर आने दो।”

 “धीरज रखो!” स्वेतोवीदव बनावटी मुस्कुराहट से बोला।“ अलबिदा, लेफ्टिनेन्ट। आशा करता हूँ कि आपके साथ ठीक ठाक हो जाएगा।”

दरवाज़े से अर्दली बाहर आया – ख़ास किस्म का कमांडर का अर्दली, चेहरे पर धृष्ठ भलमनसाहत चिपकाए, तेल लगे बालों की तिरछी मांग निकाले, सफ़ेद बुने हुए दस्ताने पहने। उसने आदर से, मगर धृष्ठता पूर्वक, आँखों को कुछ सिकोड़ते हुए, सीधे सेकंड लेफ्टिनेंट की आँखों में देखते हुए कहा,

 “महानुभाव हुज़ूर को याद कर रहे हैं।”

उसने तिरछे खड़े होकर कमरे का दरवाज़ा खोला और थोड़ा पीछे हटकर रमाशोव को रास्ता दिया, रमाशोव भीतर गया।

कर्नल शूल्गविच मेज़ के पीछे बैठा था, प्रवेश द्वार से बाएँ कोने में। वह भूरे रंग का दुहरे पल्ले वाला जैकेट पहने था, जिसके नीचे से उसकी चमचमाती हुई कमीज़ दिखाई दे रही थी। फूले फूले लाल लाल हाथ लकड़ी की आरामकुर्सी के हत्थों पर रखे थे। सिर पर छोटे छोटे ब्रश जैसे सफ़ेद बाल और सफ़ेद नुकीली दाढ़ी वाला भारी भरकम बूढ़ा चेहरा गंभीर और भावरहित था। चमकीली बदरंग आँखें आक्रामक ढंग से देख रही थीं। सेकंड लेफ्टिनेंट के अभिवादन के जवाब में उसने ज़रा सा अपने सिर को हिलाया। अचानक रमाशोव ने उसके कान में चाँद की कोर पर सलीब के निशान वाली चाँदी की बाली देखी और उसने सोचा, ताज्जुब है, इस बाली को मैंने पहले कभी नहीं देखा।

 “बुरी बात है,” कमांडर ने गुर्राहट से कहा, जो मानो उसके पेट से निकल रही थी, और वह बड़ी देर तक रुका। “शर्मनाक!” उसने आवाज़ उठाते हुए आगे कहा।“ फौज में आए बस हफ़्ता कम साल हुआ है, और लगे तुम पूछ मरोडने। आप से नाराज़ होने के लिए कई प्रमाण हैं मेरे पास। मेहरबानी करके बताइए कि यह क्या है? रेजिमेंट कमांडर आपको किसी बात के लिए ताक़ीद देता है, और आप, बदक़िस्मत एनसाइन, किसी बेवकूफी भरी बात से उसका विरोध करने लगते हैं। फूहड़पन!” अचानक कर्नल इतनी ज़ोर से चीख़ा कि रमाशोव कांप गया।“ बेतुकापन! चरित्रहीनता!”

रमाशोव अफ़सोस से एक ओर को देख रहा था, और उसे यूँ लगा कि दुनिया की कोई भी ताक़त उसे नज़रें घुमाकर कर्नल की ओर देखने पर मजबूर नहीं कर सकती। कहाँ है मेरा ‘मैं’! अचानक उसके दिमाग़ में हास्यास्पद ख़याल कौंध गया, तुम्हें अटेन्शन में खड़े होकर मुँह बंद रखना पड़ता है।

 “मुझ तक यह बात कैसे पहुँची यह तो मैं नहीं बताऊँगा, मगर मुझे पक्का पता है कि आप पीते हैं। यह बड़ी घृणित बात है। बच्चे हो, पीले मुंह के पंछी, अभी अभी स्कूल से निकले हो, मगर मेस में चमार के शागिर्द जैसे पीते हो। मेरे प्यारे, मैं सब जानता हूँ, मुझसे कोई भी बात छिपी नहीं रहती। मुझे बहुत कुछ मालूम है, जिसके बारे में आपको शक भी नहीं होगा। ठीक है, ढलान पर नीचे नीचे फिसलना चाहते हो, तो मर्ज़ी आपकी। मगर मैं आख़िरी बार कहता हूँ, मेरी बातों पर गौर करना। हमेशा ऐसा ही होता है, मेरे दोस्त, शुरू करते हैं एक जाम से, फिर दूसरा, फिर देखते रहो, और ज़िन्दगी जेल की सलाखों के पीछे ही ख़त्म होती है। यह बात दिमाग़ में रख लो। और इसके अलावा, एक बात और: हम बर्दाश्त करते हैं, मगर फ़रिश्तों की सहनशक्ति भी टूट सकती है। देखो, हमें बिल्कुल आख़िर तक जाने के लिए मजबूर मत करो। आप अकेले हैं, और अफ़सरों का समाज – एक पूरा परिवार है। मतलब, ऐसा भी हो सकता है, कि दुम पकड़ कर रेजिमेन्ट से बाहर फेक दिए जाओ।

मैं खड़ा हूँ, मैं ख़ामोश हूँ कर्नल के कान की बाली की ओर एकटक देखते हुए रमाशोव ने अफ़सोस से सोचा, जबकि मुझे कहना यह चाहिए था कि मैं ख़ुद भी इस समाज की कोई कद्र नहीं करता और अभी, इसी समय इससे दूर होने को तैयार हूँ, रिज़र्व में चला जाना चाहता हूँ। कह दूँ? क्या मेरी हिम्मत है ऐसा कहने की?


रमाशोव का दिल फिर काँपा और उसमें चुभन महसूस हुई, उसने होठों की एक क्षीण सी हलचल भी की और थूक निगला, मगर पहले ही की तरह निश्चल खड़ा रहा।

 “और, वैसे भी आम तौर से आपका बर्ताव।” कठोर स्वर में शूल्गविच कहता रहा।“ आपने पिछले वर्ष, फ़ौज में एक साल भी पूरा किए बिना, छुट्टी मांगी।आपने अपनी माँ की बीमारी के बारे में कुछ कहा, उसका कोई ख़त दिखाया। मैं, समझ रहे हैं, अपने अफ़सर पर अविश्वास नहीं कर सकता। जब आप कहते हैं कि – माँ, तो चलो, माँ ही होगी। सब कुछ हो सकता है। मगर जान लीजिए कि इस एक बात में और एक एक बात जुड़ती जाती है, और, समझ रहे हैं न।”

रमाशोव को काफ़ी देर से महसूस हो रहा था कि कैसे उसका दाहिना घुटना पहले धीरे धीरे और फिर ज़ोर ज़ोर से काँपने लगा। आख़िरकार यह कँपकँपाहट इतनी बढ़ गई कि उसका पूरा शरीर काँपने लगा। यह बड़ी अटपटी और अप्रिय बात थी, और रमाशोव ने शर्म से सोचा कि शूल्गविच इस कँपकँपाहट को उससे डरने का नतीजा समझ सकता है। मगर जब शूल्गविच ने उसकी माँ के बारे में कहना शुरू किया तो उसका खून गर्म, मदहोश करने वाली लहरों के समान जैसे रमाशोव के सिर की ओर उछला, और कँपकँपाहट फ़ौरन रुक गई। पहली बार उसने आँखें ऊपर उठाई और सीधे शूल्गविच की ओर एकटक देखने लगा – घृणा से, और, उसे स्वयँ भी महसूस हुआ- धृष्ठता से, जिसने मानो उस विशाल सीढ़ी को नष्ट कर दिया जो एक छोटे मातहत को भयानक अफ़सर से अलग करती थी। पूरे कमरे में अचानक अंधेरा छा गया, जैसे उसमें सभी परदे बंद कर दिए गए हों। कमांडर की गहरी आवाज़ जैसे किसी बेआवाज़ खाई में गिर गई। एक अजीब अंधेरे का और ख़ामोश लमहे का एहसास हुआ – बेख़याल, बेख़्वाहिश, हर बाहरी प्रभाव से महरूम, सिर्फ एक ख़ौफ़नाक विश्वास को छोड़कर, कि बस अभी, इसी पल, कुछ बुरा होने वाला है, भयानक, जिसे सुधारा नहीं जा सकता।एक विचित्र, मानो अजनबी आवाज़ ने जैसे बाहर से रमाशोव के कान में फुसफुसाकर कहा, अब मैं इसे मारूँगा और रमाशोव ने धीरे धीरे नज़र घुमाई भरेभरे, माँसल, बूढ़े गाल की ओर और आधे चाँद और सलीब वाली कान की चांदी की बाली की ओर।

इसके बाद, कुछ भी न समझ पाते हुए, मानो नींद में, उसने शूल्गविच की आँखों में बदलते हुए भाव परिवर्तित होते देखे: आश्चर्य, भय, उत्तेजना, दयनीयता, पागलपन की जिस लहर ने उसकी आत्मा को जिस आकस्मिकता से, भयानकता से दबोच लिया था, वह अचानक नीचे गिरने लगी, पिघलने लगी, वापस लौटने लगी। रमाशोव ने मानो नींद से जागते हुए गहरी सांस ली।उसकी आँखों में सब कुछ फिर से सामान्य हो गया। शूल्गविच ने परेशान होकर कुर्सी की ओर इशारा किया और अप्रत्याशित रूप से फूहड़ प्यार से बोला:

 “छि:, शैतान ले जाए, कितनी जल्दी बुरा मान जाते हैं आप..ओह, बैठिए भी, शैतान ले जाए! तो हाँ आप सब ऐसे ही हैं। मेरी ओर इस तरह देखते हैं मानो जंगली जानवर को देख रहे हों। चिल्ला रहा है, जैसे, बूढ़ा गधा, बगैर बात के, बेमतलब, शैतान इसे उठा ले। और मैं,” गहरी आवाज़ गर्माहट भरी उत्तेजना से सराबोर हो गई, “और मैं, हे भगवान, मेरे प्यारे, आप सबसे प्यार करता हूँ, जैसे आप लोग मेरे बच्चे हों। आप क्या सोचते हैं, मैं आपके लिए परेशान नहीं होता? दुखी नहीं होता? ओह, श्रीमान, श्रीमान, आप लोग मुझे समझते ही नहीं हैं। ओह, ठीक है, चलो, मान लेते हैं कि मैं ग़ुस्से में आ गया था, अपनी सीमा पार कर गया – तो क्या बूढ़े आदमी पे गुस्सा होना चाहिए? ऐ-ऐह, आजकल के नौजवान। चलो, समझौता कर लेते हैं- बेशक, हाथ मिलाओ। और खाना खाने चलते हैं।”

रमाशोव ने ख़ामोशी से अभिवादन किया और अपनी ओर बढ़ाए हुए भारी भरकम, फूले फूले और ठंडे हाथ से हाथ मिलाया। अपमान की भावना गुज़र चुकी थी, मगर उसके दिल को आराम नहीं था।आज सुबह के महत्वपूर्ण और गर्वीले विचारों के पश्चात् वह इस समय स्वयँ को एक छोटे से, दयनीय, डरे हुए स्कूली बच्चे के समान अनुभव कर रहा था, एक अनचाहे, संकोची, तिरस्कृत बच्चे के समान, और यह परिवर्तन दुखदायी था। और इसीलिए, कर्नल के पीछे पीछे डाइनिंग रूम में जाते हुए वह अपने बारे में, आदत के मुताबिक, स्वयँ को तृतीय पुरुष में रखकर सोच रहा था -उसके मुख पर ग़म की घटा छा गई।

शूल्गविच की कोई संतान नहीं थी। मेज़ के पास उसकी पत्नी आई: भारी-भरकम, रौबदार और ख़ामोश तबियत, गर्दन थी ही नहीं, कई सारी ठोड़ियाँ थीं।मगर उसके चश्मे और अकड़ूपन के बावजूद, उसका चेहरा बड़ा सीधा-सादा था और ऐसा लगता था मानो अभी अभी उसे आटे से बनाकर ओवन में पकाया गया हो, जल्दबाज़ी में, और आँखों के बदले मेवे चिपका दिए गए हों।उसके पीछे पीछे, पैरों को घसीटते हुए, कर्नल की प्राचीन माँ मानो तैरती हुई आई : छोटी सी, बहरी मगर अभी भी काफ़ी चुस्त, ज़हरीली और हुक्म चलाने वाली बुढ़िया।चश्मे के ऊपर से खुल्लमखुल्ला और एकटक रमाशोव को ऊपर से नीचे देखने लगी, उसने अपना छोटा सा, काला, झुर्रियों वाला, किसी अवशेष जैसा हाथ उसकी ओर बढ़ाते हुए सीधे उसके होठों में ही घुसेड़ दिया।फिर वह कर्नल की ओर मुड़ी और इस तरह से पूछने लगी जैसे डाइनिंग हॉल में उन दोनों के अलावा कोई और न हो:

”यह कौन है? कुछ याद नहीं पड़ता।”

शूल्गविच ने अपनी हथेलियों को भोंपू की शक्ल में मुँह के पास रखा और सीधे बुढ़िया के कान में ज़ोर से चिल्लाया:

 “सेकंड लेफ्टिनेंट रमाशोव है, मम्मा।बहुत बढ़िया अफ़सर है, फ्रंट लाइन का सिपाही है और नौजवान है। कैडेट स्कूल से...आह, हाँ!” वह अचानक चहका।“ आप तो, सेकंड लेफ्टिनेंट, शायद हमारे पेन्ज़ा के हैं?”

 “सही फ़रमाया, जनाब कर्नल साहब, मैं पेन्ज़ा का ही हूँ।”

 “ओह, हाँ, ओह, हाँ..याद आया। अरे, हम आप तो शायद एक ही जगह के हैं, नारोव्चात ज़िले के?”

 “बिल्कुल सही फ़रमाते हैं, जनाब। नारोव्चात से ही हूँ।”

 “ओह, हाँ, ये मैं कैसे भूल गया? नारोव्चात, सिर्फ ठूँठ ही ठूँठ।और हम – इन्सार के हैं। मम्मा!” उसने फिर माँ के कान में भोंपू बजाया, :सेकंड लेफ्टिनेंट रमाशोव , हमारे पेन्ज़ा के ही हैं! नारोव्चात के! हमज़मीं! ”

 “आ-आ!” बुढ़िया ने अर्थपूर्ण ढंग से भौंहे नचाईं।“अच्छा,अच्छा, अच्छा, वही तो, वही तो, मैं सोच रही थी। मतलब, आप, ये हुआ कि, सिर्गेई पित्रोविच शीश्किन के बेटे हैं?”

 “मम्मा! गलत! सेकंड लेफ्टिनेन्ट का कुलनाम है – रमाशोव, न कि शीश्किन! ”

 “वही, वही, वही..मैं भी तो वही कह रही हूँ। सिर्गेई पित्रोविच को तो मैं जानती नहीं थी। सुना भर था उसके बारे में। मगर प्योत्र पित्रोविच को – बल्कि उससे तो अक्सर मुलाक़ात होती थी।ध्यान दो, हमारी जागीरें अगल-बगल में ही थीं।बहुत, ब-हु-त ख़ुशी हुई, नौजवान..आपके लिए यह गर्व की बात है।”

 “ओह, अब यह पुरानी डिबिया लगी अपनी बीन बजाने,” कर्नल ने फूहड़ भलमनसाहत से दबी ज़ुबान में कहा।“ बैठिए, सेकंड लेफ्टिनेंट...लेफ्टिनेंट फिदरोव्स्की!” वह दरवाज़े की ओर देखते हुए चिल्लाया।“ अब वहाँ बस करो और यहाँ आओ, वोद्का पीने के लिए!”

डाइनिंग हॉल में तेज़ी से एडजुटेन्ट आया, जो कई रेजिमेंटों के नियम के अनुसार, हमेशा अपने कमांडर के यहाँ खाना खाया करता था। हल्के-हल्के और सहजता से अपनी एड़ियाँ खटखटाते हुए, वह एक अलग रखी हुई वार्निश की गई मेज़ पर स्नॅक्स लेकर बैठ गया, उसने अपने जाम में वोद्का डाली और आराम से खाता-पीता रहा। रमाशोव को उससे हल्की सी ईर्ष्या हुई और मन में उसके लिए कुछ उथला सा, मज़ाहिया सा आदर भी उत्पन्न हुआ।

 “और आप, वोद्का?” शूल्गविच ने पूछा।“आप तो पीते हैं?”

 “नहीं, धन्यवाद। मेरी इच्छा नहीं हो रही,” रमाशोव ने हल्की सी खाँसी के साथ भर्राई आवाज़ में जवाब दिया।

 “औ-र ये अ-च्छी बात है। सबसे अच्छी। उम्मीद करता हूँ कि आगे भी ऐसा ही रहेगा।”

खाना बेशुमार और लज़ीज़ था। ज़ाहिर था कि नि:संतान कर्नल और उसकी पत्नी को बढ़िया खाने पीने का मासूम-सा शौक था। नर्म जडों और हरी पत्तियों का गाढ़ा गाढ़ा सूप, तली हुई ताज़े पानी की मछली का शोरवा, बढ़िया, मोटी ताज़ी घरेलू बत्तख और एस्पैरागस था।मेज़ पर तीन बोतलें रखी थीं –लाल और सफ़ेद वाइन की और मदैरा की - वे पहले से खोली जा चुकी थीं और चांदी के कॉर्क से बंद की गई थीं, मगर वे महंगी वाली, बढ़िया विदेशी मार्क वाली थीं।कर्नल - मानो अपनी हाल ही की भड़ास ने उसकी भूख को बढ़ा दिया था – बड़ा स्वाद ले लेकर और इतने ख़ूबसूरत सलीक़े से खा रहा था कि उसकी ओर देखना बड़ा अच्छा लग रहा था। पूरे समय वह फूहड़, मगर प्यारे से मज़ाक करता रहा।जब एस्पैरागस दी गई, तो उसने अपने कोट की कॉलर में सफ़ेद चमचमाते नैपकिन को बहुत गहरे फँसा लिया और प्रसन्नता से बोला, “अगर मैं त्सार होता, तो हमेशा एस्पैरागस ही खाता!”

मगर इससे पहले, जब मछली परोसी जा रही थी, तो वह बर्दाश्त न कर पाया और अफ़सरों वाले अंदाज़ में रमाशोव पर चिल्लाया:

 “सेकंड लेफ्टिनेंट! कृपया छुरी बगल में रख दीजिए। मछली और कटलेट केवल काँटे से खाए जाते हैं। हर अफ़सर को कभी भी राजमहल में दावत पर बुलाया जा सकता है।यह बात याद रखिए।”

खाने के दौरान रमाशोव बड़े अटपटेपन से, संकोच से बैठा रहा, वह समझ नहीं पा रहा था कि अपने हाथों को कहाँ रखे और ज़्यादातर उन्हें मेज़ के नीचे रखे रहा और मेज़पोश की किनार की चोटियाँ बनाता रहा। अच्छे, घरेलू वातावरण को, आरामदेह, बढ़िया फ़र्नीचर को, टेबल मैनर्स को वह कब का भूल चुका था। और पूरे समय एक ही ख़याल उसे कचोट रहा था - यह तो बड़ी तिरस्करणीय बात है, मेरी ओर से ये कमज़ोरी और ये डरपोकपन, मैं क्यों नहीं कर सका, क्यों इनकार नहीं कर दिया मैंन इस अपमानजनक खाने से। मैं फ़ौरन उठ जाऊँगा, सबका एक साथ अभिवादन करूँगा और निकल जाऊँगा।उन्हें जो सोचना है सोचने दो। आख़िर वह मुझे खा तो नहीं जाएगा? मेरी रूह, मेरे ख़याल, मेरी चेतना तो नहीं छीन लेगा? क्या चला जाऊँ? मगर फिर से, हौले हौले जमते हुए दिल से, आंतरिक उत्तेजना से फक् पड़ते चेहरे से, अपने आप को कोसते हुए, उसने महसूस किया कि वह ऐसा करने की स्थिति में नहीं है।

जब कॉफ़ी दी जा रही थी तो शाम हो चली थी। सूरज की लाल लाल तिरछी किरणें खिड़कियों से अन्दर घुस आईं और काले वॉल पेपर पर, कालीन पर, क्रिस्टल पर, भोजन कर रहे लोगों के चेहरों पर चमकीले लाल लाल धब्बे बनाती हुई खेलती रहीं। सांझ की इस संजीदा कशिश से सब ख़ामोश हो गए।

 “जब मैं एनसाइन था,” शूल्गविच अचानक बोल पड़ा, “ तो हमारी ब्रिगेड का कमांडर था जनरल फ़फ़ानोव। प्यारा सा बूढ़ा, युद्ध में लड़ चुका था, मगर क़रीब क़रीब छावनी वाला। मुझे याद है, वह इन्स्पेक्शन के समय ड्रम बजाने वाले की ओर जाता, - उसे ड्रम बहुत अच्छा लगता था, - तो उसके पास जाता और कहता, “ तो भाई, मेरे लिये कोई उदास सी चीज़ बजाओ।” हाँ, तो ये जनरल, जब उसके पास मेहमान आते तो करेक्ट ग्यारह बजे सोने चला जाता।मेहमानों से मुख़ातिब होकर कहता, “ जनाब, खाइये, पीजिए, मस्ती कीजिए, और मैं चला नेपच्यून की बाँहों में” उससे कहते, “ क्या मॉर्फियस की बाँहों में, जनाब?” – “ऐह, एक ही बात है, वे एक ही मिट्टी के बने हैं ” वैसे ही मैं भी अब, महोदय,” शूल्गविच उठ खड़ा हुआ और उसने कुर्सी की पीठ पर नैपकिन डाल दिया, “मैं भी नैपच्यून की बाँहों में चला।आप फ्री हैं, अफ़सर महाशय।”

अफ़सर उठ गए और अपने हाथ पैर तानने लगे।उसके पतले पतले एक कटु, व्यंग्यात्मक मुस्कान आ गई, रमाशोव ने सोचा, मगर सिर्फ सोचा ही, क्योंकि इस क्षण उसका चेहरा बड़ा दयनीय, फक् और विकृत - आज्ञाकारितापूर्ण था।

रमाशोव फिर घर की ओर जा रहा था, स्वयँ को अकेला, दुखी महसूस कर रहा था, मानो किसी अजनबी, अंधेरी और ख़तरनाक जगह पर भटक गया हो।पश्चिम की ओर भूरे-नीले बादलों के घने झुंड के पीछे से सूर्यास्त का लाल-धधकता प्रकाश दिखाई दे रहा था, और रमाशोव को दूर, क्षितिज के पार, घरों और खेतों के परे फिर से एक ख़ूबसूरत, जादुई शहर के अस्तित्व का आभास हुआ: ज़िन्दगी से, सुख से और सलीके से भरपूर।

सड़कों पर तेज़ी से अंधेरा छा रहा था। मुख्य रास्ते पर किलकारियाँ मारते यहूदियों के बच्चे भाग रहे थे।घरों के सामने छोटे छोटे टीलों पर, बड़े – छोटे फाटकों के पास, बगीचों में औरतों की हँसी खनक रही थी, निरंतर उत्तेजनापूर्ण ढंग से खनक रही थी, गर्म, जानवरों जैसी, प्रसन्नता भरी कँपकँपाहट लिए, जैसी सिर्फ आरंभिक बसंत के दिनों में ही गूंजती है। और रमाशोव के मन में ख़ामोश, खोई-खोई उदासी के साथ एक सहानुभूति और कुछ विचित्र, अस्पष्ट यादें जाग उठी उस सुख की जो कभी मिला ही नहीं; पुरानी, कुछ ज़्यादा ख़ूबसूरत बसंतों की; और दिल में शीघ्र आने वाले प्यार का अस्पष्ट, मीठा पूर्वाभास हिलोरें लेने लगा।

जब वह घर पहुँचा तो उसने गैनान को उसकी अंधेरी कोठरी में पूश्किन के बुत के सामने बैठे देखा। महान कवि पूरा तेल से पुता था, और उसके सामने जल रही मोमबत्ती कवि की नाक पर, मोटे मोटे होठों पर और मोटी गर्दन पर प्रकाश के चमकीले धब्बे डाल रही थी।ख़ुद गैनान, तुर्कों जैसे तीन पटरों पर बैठकर, जो उसकी खाट का काम करते थे, आगे पीछे डोल रहा था और एक सुर में कुछ निराशापूर्ण सा बड़बड़ा रहा था।

 “गैनान!” रमाशोव ने उसे पुकारा।

अर्दली काँप गया और खाट से उछलकर तनकर खड़ा हो गया। उसके चेहरे पर भय और उलझन के लक्षण दिखाई दिए।

 “अल्ला?” रमाशोव ने दोस्ताना अंदाज़ में पूछा।

गैनान का बच्चों जैसा सफ़ाचट मुँह मुस्कुराते हुए खुल गया और मोमबत्ती की रोशनी में उसके सफ़ेद शानदार दाँत चमक उठे।

 “अल्ला, जनाब!”

 “ ठीक है, ठीक है, ठीक है, बैठो, बैठो,” रमाशोव ने प्यार से अर्दली के कंधे को सहलाया।“ एक ही बात है, गैनान, तुम्हारे पास अल्ला है, मेरे पास अल्ला है।सभी लोगों का अल्ला एक ही है, मेरे भाई!" प्यारा है गैनान,” अपने कमरे में जाते हुए रमाशोव सोचने लगा।“और मैं उससे हाथ भी हिलाने की हिम्मत नहीं करता।हाँ, नहीं कर सकता, हिम्मत नहीं होती।ओह, शैतान! आज से ख़ुद ही कपड़े पहनना और उतारना पड़ेगा।अपने लिए किसी और को यह काम करने पर मजबूर करना सुअरपन है।


शाम को वह मेस में नहीं गया, बल्कि उसने बक्से में से लाइनों वाली कॉपी निकाली, जो बारीक टेढ़े-मेढ़े अक्षरों से भरी थी, और वह देर रात तक लिखता रहा। यह रमासोव द्वारा रचित तीसरा लघु उपन्यास था, जिसका शीर्षक था "अंतिम ख़तरनाक शुरुआत"। सेकण्ड लेफ़्टिनेंट अपनी साहित्यिक गतिविधियों से अपने आप ही बहुत लज्जित होता था और इस दुनिया में उसने किसी से भी इसका ज़िक्र नहीं किया था।



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