डर के आगे जीत है
डर के आगे जीत है
राहुल ट्यूशन से लौटकर अपने आप को तरोताज़ा करने के लिए विडियो गेम खेल रहा था। उसका पसंदीदा खेल था ‘कॉल ऑफ ड्यूटी’ जिसमें वह धड़ाधड़ गोलियाँ चलाता था और दुश्मन के छक्के छुड़ाता था। वह रोज़ की तरह खेल में खो गया था। उसे दुश्मनों पर गोलियाँ चलाने में अपार आनंद मिल रहा था। खेल में जीतते-जीतते उसकी आँखों की चमक भी बढ़ती
जाती थी। तभी माँ ने खाने के लिए पुकारा। राहुल खेल के बीच में था, उठना नहीं चाहता था। उसने माँ की बात अनसुनी कर दी और खेलता रहा। “राहुल.....” एक बार फिर यह शब्द कान में पड़ा। इससे पहले कि माँ का स्वर और ऊँचा होता और राहुल को रोज़ की तरह एक लंबा लेक्चर सुनना पड़ता, वह खेल छोड़कर खड़ा हो गया और खाने की मेज़ पर
जा बैठा।
माँ-पापा पहले से बैठे उसका इंतज़ार कर रहे थे। आठ वर्ष का राहुल चाह कर भी अपने चेहरे के भाव छिपा
नहीं पा रहा था। माँ ने उसका चेहरा पढ़ लिया था। पूछा,”तुम्हें ये मारपीट का इतना भूत क्यों सवार रहता है? कितने ही अच्छे-अच्छे खेल हैं तुम्हारे पास.... वैसे भी मार-धाड़ के खेलों से दूर ही रहा करो। मन में हिंसा और अशांति के भाव पनपते हैं
इनसे।“ माँ को बीच में टोकते हुए पापा बोले,”रमा, अब खाना खा लें? वैसे भी बहुत देर हो चुकी है। सुबह जल्दी उठना भी है।“
तीनों समय की नज़ाकत को समझते हुए खाना खाने लगे। यह लगभग रोज़ की कहानी थी। सुबह की जल्दी के कारण रात
की जल्दी और रात की जल्दी के कारण शाम की जल्दी। कब सुबह होती, कब शाम होती, कुछ पता ही नहीं चलता। पापा अपनी भागमभाग में, माँ अपनी और राहुल अपनी। ऐसा लगता है ये तीनों किसी मैराथॉन में दौड़ रहे हैं। सबकी अपनी-अपनी मैराथॉन है। माँ-पापा तो बड़े हैं, समर्थ हैं, संभवतः तेज़ भाग पा रहे है, पर राहुल, वह तो स्वयं को इस मैराथॉन के लिए रोज़ तैयार करता और रोज़ थक जाता था।
रोज़ रात को लेटते ही वह अगले दिन की फ़िक्र करने लगता। उसकी हर सुबह जल्दी-जल्दी तैयार होने से शुरू
होती । माँ हर पाँच मिनट में “हर्री-अप”
“हर्री-अप” कहती रहती । राहुल चाहता था कि कभी कोई ऐसा दिन आ जाए कि माँ उसे समय पर तैयार न होने की वजह से घर पर ही छोड़ कर ऑफिस चली जाएँ। पर ऐसा दिन कभी नहीं आता। माँ उसे ठीक समय पर कार में बैठा ही लेती।
राहुल को स्कूल से डर नहीं लगता। उसका पढ़ाई में मन कम लगता है पर उसे स्कूल में खूब मज़ा आता है। खासकर लंच-ब्रेक की मौज-मस्ती राहुल को खूब
भाती है। सबके साथ टिफ़िन खोल कर खाना, पिछली रात के विडियो-गेम में अपनी जीत के
किस्से सुनाना, जन्मदिन मना रहे सहपाठी के साथ चॉकलेट
बाँटना, सब उसे पसंद था।
उसकी चिंता थी तो केवल यह कि स्कूल की बस से उतरकर अपनी ‘बड़ी मम्मा’
के घर तक कैसे जाए। दरअसल, माँ के आने तक उसे ‘बड़ी मम्मा’ के घर पर रह कर अपना होमवर्क आदि करना होता
है। उसकी इस दस मिनट की यात्रा में रुकावट बनकर आते हैं एक लुंगी वाले अंकल। राहुल
की बस का समय और लुंगी वाले अंकल का समय बिलकुल एक है। जब राहुल अपनी बस से उतरता, ये अंकल ठीक
उसी समय अपने कुत्ते को घुमाने निकल पड़ते हैं। राहुल को कुत्ते घूमने से कोई
दिक्कत नहीं, उसे शिकायत है कि वे उसे खुला क्यों लेकर
आते हैं? अंकल के एक हाथ में लुंगी का छोर होता और
दूसरे में एक डंडा, शायद अपने कुत्ते की अन्य सड़कछाप कुत्तों से सुरक्षा करने के लिए।
राहुल के लिए ‘बड़ी मम्मा’ के घर तक जाने में यह रोज़ की समस्या थी। वह बेचारा अंकल और उनके कुत्ते के डर के मारे हर रोज़ स्कूल की छुट्टी तक करने की कोशिश में लगा रहता। वह जब कभी अपनी समस्या अपने दोस्तों को बताने की कोशिश करता तो उनका समाधान यही होता कि उसे लुंगी वाले अंकल और उनके कुत्ते से दोस्ती कर लेनी
चाहिए, सब ठीक हो जाएगा। पर राहुल मन में सोचता कि यदि उसने उन्हें बताया कि उन्हें देखते ही उसका खून सूख जाता है। दोस्ती तो दूर की बात वह उन्हें देखते ही कोसों दूर भागना चाहता है, उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है ....
वगैरह वगैरह, तो वे उस पर खूब हँसेंगे और रोज़-रोज़ खिंचाई करेंगे। इसलिए वह हर बार किसी अन्य विषय पर बात करने लगता।
घर पर माँ को बताने का कोई फ़ायदा नहीं क्योंकि उनके लिए तो उनका राहुल ‘ब्रेव बॉय’, ‘गुड बॉय’, ‘स्वीट बॉय’
और न जाने क्या-क्या है। वे तो इसे समस्या ही नहीं मानेंगी। पापा.... उनके पास समय ही कहाँ होता है कि उसकी बात सुनें? समय तो माँ के पास भी कम ही होता है पर कार में थोड़ा-बहुत मिल जाता है, वह भी तब जब उनके बॉस का फ़ोन न आए।
राहुल हरदिन बड़ी मुश्किल से ‘बड़ी मम्मा’ के घर पहुँच पाता। कभी किसी की परछाईं बनकर उसके पीछे हो लेता तो कभी किसी कार के पीछे छिपकर अंकल के चले जाने का इंतज़ार करता। ये लुंगी वाले अंकल और उनका कुत्ता
भूत की तरह राहुल के दिल-दिमाग पर हावी हो गए थे। इसी आतंक के कारण उसे चारों ओर
दिखाई देते, चाहे हों या न हों। हालाँकि बस-स्टॉप और बड़ी मम्मा के घर का रास्ता कुल दस मिनट का था,
पर राहुल के लिए ये दस मिनट दस साल से कम नहीं थे।
वह रोज़ किसी न किसी तरह ‘बड़ी मम्मा’ के घर पहुँच जाता। परंतु राहुल का डर दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था। उसका व्यवहार असहज होने
लगा था। उसका घबराया हुआ चेहरा केवल ‘बड़ी मम्मा’
देखती थीं, माँ-पापा तो कभी नहीं। उन्हें तो राहुल के
दिन के कठिन दस मिनटों की भनक तक नहीं थी। एक दिन ‘बड़ी मम्मा’ ने राहुल की माँ से जानना चाहा कि क्या
उन्होंने राहुल के व्यवहार में कोई बदलाव देखा है?
इस पर माँ ने कहा,”ऐसी कोई बात नहीं है।“ फिर राहुल के रिज़ल्ट
में आए सुधार के लिए उन्हें धन्यवाद देने लगीं।
‘बड़ी मम्मा’ इस उत्तर से संतुष्ट नहीं हुईं। राहुल का भयाक्रांत चेहरा उनकी अनुभवी आँखों से
छिपा नहीं रह सकता था। एक दिन उनका मन नहीं माना,
होमवर्क करवाने के बाद उन्होंने राहुल को अपने पास बैठाया। अपने बचपन का एक किस्सा
सुनाकर उसका मन टटोलने की कोशिश की। राहुल रोज़ होमवर्क के बाद खेलने जाता था, पर आज न जाने क्यों उसे ‘बड़ी
मम्मा’ की बातों में मज़ा आ रहा था। उसे महसूस हो
रहा था कि वह उनसे अपने मन की बात कह सकता है। शायाद उसकी छोटी-सी दुनिया में एक
वही हैं जो उसे समझ सकतीं हैं। वे माँ की तरह हर छोटी बात पर ‘गुड बॉय’, ब्रेव बॉय’
नहीं कहतीं हैं बल्कि सिर्फ ‘बेटा’ कहतीं हैं। उनके ‘बेटा’ कहने में राहुल को ऐसी मिठास महसूस होती थी
जिसमें कोई मिलावट नहीं थी। वे माँ की तरह कम नंबर आने पर नाराज़ भी नहीं होतीं, बल्कि उसे गिनकर उतनी
चॉकलेट खिलातीं जितने प्रश्नों के उसने सही उत्तर दिए होते थे। आज न जाने क्यों उसे ऐसी कई बातें याद आ रहीं थीं।
शायद इसीलिए आज वह उन्हें सब कुछ बता देना चाहता था।
वह ‘बड़ी मम्मा’ से बोला,” मैं भी आपको अपना एक किस्सा सुनाऊँ ?” फिर उसने अपने हर दिन के दस मिनटों की
व्यथा-कथा कह सुनाई। ‘बड़ी मम्मा’ ने राहुल को अपनी बाहों में भर लिया मानो उसके इर्दगिर्द कोई कवच बना रही हों।
उन्होंने उससे कहा,”बेटा, यदि तुम मेरी बात मानो तो मैं तुम्हें इस
डर से आज़ाद कर सकती हूँ।“ राहुल को तो मानो कोई खज़ाना हाथ लग गया था, बोला,”मुझे क्या करना होगा बड़ी मम्मा?”
‘बड़ी मम्मा’
ने इस प्रश्न के उत्तर में शाम की एक योजना बना डाली। बोलीं,”मैं चाय पीकर कपड़े बदल लेती हूँ। फिर हम-तुम घूमने
चलेंगे। तुम्हारी माँ के आने तक लौट आएँगे। यदि देर हो गई तो मैं उन्हें फ़ोन कर
दूँगी, वे नाराज़ नहीं होंगी।“
कुछ देर में दोनों कार में थे। रास्ते में उन्होंने खूब बातें कीं। आज राहुल को खेल न पाने का कोई अफ़सोस
नहीं था। उसे ‘बड़ी मम्मा’ की बातों में मज़ा आ रहा था। एक बाज़ार में पहुँच कर उन्होंने अपनी कार पार्क की, फिर राहुल के साथ आइसक्रीम खाई और उसे लेकर एक ऐसी दुकान में घुसीं जहाँ पालतू पशु बिक्री के लिए रखे थे। हालाँकि सभी बंद थे, कोई खतरा नहीं था, पर राहुल तो बिदक गया था। वह मन ही मन ‘बड़ी मम्मा’ से बेहद नाराज़ था कि यह कैसा मज़ाक किया है उन्होंने उसके साथ। राहुल की धड़कन ‘बड़ी मम्मा’ के कानों तक गूँज रही थी। उन्होंने कुछ कहे बिना ही उसका नन्हा-सा हाथ अपने हाथों में ले लिया। उनके हाथों का स्पर्श पाते ही मानो राहुल के दिल तक शीतल जल की धारा बहने लगी थी जिसने दिल में उठ आए उफ़ान को शांत कर दिया था। वह समर्पित भाव से उनका हाथ थामे दुकान में टहलता
रहा।
तभी ‘बड़ी मम्मा’ ने एक पिल्ले का दाम पूछा और उसे खोलने को कहा। राहुल तो एकदम सफ़ेद पड़ गया था। उसने अपने दूसरे हाथ से उनके हाथ में दिए हाथ को कसकर भींच दिया। तभी ‘बड़ी मम्मा’ ने हौले-से अपनी हथेली के नीचे राहुल का हाथ लेकर पिल्ले की पीठ पर रख दिया। गनीमत
थी कि दुकानदार ने पिल्ले को पकड़ रखा था, वरना राहुल की तो जान ही निकल गई थी।
पर यह क्या,
राहुल की नन्ही हथेली पिल्ले की पीठ पर थी। राहुल ने इस सुखद परिवर्तन की कभी
कल्पना भी नहीं की थी। आज उसे
विश्व-विजेता बनने का-सा आनंद मिल रहा था। वह फूला नहीं समा रहा था।
‘बड़ी मम्मा’ ने कहा,”बेटा, मैं इसे अपने घर में रखूँगी। जब तुम स्कूल से मेरे पास आया करोगे तब मैं इससे तुम्हारी दोस्ती करवाऊँगी। देखना, जल्दी ही यह तुम्हारा अच्छा दोस्त बन जाएगा।“
राहुल का मन तो आज की विजय से भरपूर तृप्त हो चुका था। अब उसे उस दिन का इंतज़ार था जब वह लुंगी वाले अंकल के कुत्ते से बिलकुल नहीं डरेगा।