माणिक सा माणिक
माणिक सा माणिक


सन 1950 की बात है। देश नई – नई आज़ादी का आनंद ले रहा था। चारों तरफ उल्लास का माहौल था। बच्चा-बच्चा आज़ाद हवा में सांस ले रहा था। राजनैतिक हलचलों से दूर, देश की राजधानी के निकट बसी मथुरा नगरी के 17 वर्षीय बालक माणिक के लिए तो आजादी का अर्थ भी निराला था और संघर्ष भी।
माणिक मथुरा के एक सम्पन्न परिवार में जन्मा था। घर में घी-दूध की नदियां बहती थी, किसी चीज़ की कोई कमी न थी। कमी थी तो बस माँ की.... । माँ के आकस्मिक निधन के कारण बालक माणिक ममता से वंचित रह गया था।
माँ के निधन के बाद कुछ 5 वर्ष की उम्र से ही उसने गली-मोहल्ले की हर महिला में माँ को खोजना और पाना शुरु कर दिया था। घर में उसका जी न लगता था। वह दिनभर गलियों में घूमता, मंदिरों को अपना घर मानता और कान्हा को अपना सखा मानता, ठीक अर्जुन की तरह।
हाँ, अर्जुन ही तो बन गया था माणिक ! वैसा ही लक्ष्य पर केन्द्रित मन, वैसी ही सर्वश्रेष्ठ बनने की लगन और वैसा ही कृष्ण-सा सहचर पाने का संयोग। माणिक और कृष्ण दोनों में विचित्र –सी मित्रता हो गई थी। जी हाँ, कृष्ण भगवान से ही हमारे माणिक की मित्रता हो गई थी। सबके लिए कृष्ण भगवान थे पर माणिक के लिए तो उसके परम प्रिय सखा थे जो उसकी तरह ही मथुरा में जन्मे और गलियों में खेले थे।
अपना सुख-दुख बांटने के लिए माणिक के पास कृष्ण से सच्चा कोई अन्य साथी न था। एक बार कृष्ण के मंदिर में किसी ने बातों-बातों में माणिक को उसके नाम का अर्थ बता दिया। बस तब से तो वह स्वयं को माणिक की तरह बहुमूल्य समझने लगा था। स्वयं की सुरक्षा करने लगा था और स्वयं को तराशने व चमकाने का भरपूर प्रयास करने लगा था।
स्कूल में भी चमकने लगा था माणिक। सब बच्चों से निराली थी उसकी चमक। अध्यापक उससे बहुत प्यार करते परंतु कभी-कभी उसके प्रश्नों के सामने निरुत्तर हो जाते तब माणिक अतृप्त ही रह जाता। मथुरा नगरी के अध्यापकों के ज्ञान से मणिक की पिपासा तृप्त नहीं हो पा रही थी। वह बहुत ज्ञान पाना चाहता था, खूब पढ़ना चाहता था।
वह कान्हा के पास गया और उनकी प्रेरणा से उसने भी मथुरा छोड़ कर गुजरात जाने का निश्चय किया। दोनों में अंतर था तो केवल इतना था कि कान्हा द्वारका गए थे राज करने के लिए और वह जाएगा बड़ौदा पढ़ने के लिए ।
दरअसल, बड़ौदा से कई तीर्थ यात्री मथुरा आया करते थे । माणिक उनसे उस शहर के बारे में पूछता रहता था।उनकी बातों से उसने जाना कि वहाँ महाराजा सयाजी राव विश्वविद्यालय है जहां बी.ए. , एम.ए. की पढ़ाई होती है। बस तब से ही वह बड़ौदा जाकर पढ़ने का सपना देखने लगा था ।
उसने जब यह बात घरवालों को बताई तो घोर विरोध शुरु हो गया । कैसे भेजें तुझे अकेला….वहाँ कैसे रहेगा परदेस में अकेला.....क्या करेगा पढ़-लिख कर.......यहाँ रहकर अपना खानदानी काम करना......सवालों की बौछार........सुझावों की बरसात।
लेकिन माणिक तो अटल था अपने निश्चय पर। उसे अपने कान्हा पर पूरा भरोसा था । वह तो अपनी बारहवीं की परीक्षा समाप्त होने की प्रतीक्षा कर रहा था । परीक्षा भी हो गई और परिणाम भी आ गया । साथ ही कान्हा की कृपा से टिकट का प्रबंध भी हो गया।
फिर क्या था, अपने दो जोड़े कपड़े लेकर माणिक चल पड़ा बड़ौदा की यात्रा पर। घर से न कोई छोड़ने आया और न किसीने उसकी ज़रूरत की चीजों का ध्यान ही रखा। माणिक ने अपनी यात्रा आरंभ कर दी थी केवल कान्हा के भरोसे!!
3 जुलाई, 1950 का दिन माणिक के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण दिन था। इसी दिन उसने छोटी-सी मथुरा नगरी से बड़ौदा तक की रेलयात्रा आरंभ की थी। यात्रा बहुत लंबी थी और कठिन भी परंतु उसके मन में इतना उत्साह था कि भूख, प्यास, नींद से उसे कोई कष्ट नहीं हो रहा था।
अब माणिक विश्वद्यलाय पहुँच गया। बड़ा-सा शहर, पढे-लिखे लोग .... सब कुछ नया-नया। पूछते-पूछते वह रजिस्ट्रार के दफ्तर पहुंचा। वहाँ पूछताछ की तो पता चला कि दाखिले के लिए तो देर हो गई है, नया सत्र जून में आरंभ हो चुका और अब दाखिले की कोई संभावना नहीं है।
माणिक तो बेचारा अपने ही सपने के टूटने की आवाज़ सुन रहा था। उसके पैरों तले ज़मीन खिसक चुकी थी, पर कान्हा का भरोसा नहीं छूटा था। साहस बटोर कर रजिस्ट्रार से बोला,” भाई, कोई तो होगा जो कुछ कर सके।“
रजिस्ट्रार ने भी अपनी जान छुड़ाते हुए संक्षिप्त-सा उत्तर दे दिया,”इस मामले में तो वाइस-चान्सलर साहब ही कुछ कर पाएंगे।“ वह जानता था कि वाइस चांसलर से मिलना या बात करना क्या सहज है? पर जब कन्हैया साथ हो तो सब सहज हो जाता है।माणिक सीधा वाइस चांसलर के कमरे में जा पहुँचा ।
पूरी दृढ़ता से बोला,” सर, में मथुरा से आया हूँ, यहाँ पढ़ना चाहता हूँ । “
“मथुरा से आए हो? ब्रजभाषा जानते हो।”
“सर, ब्रजभाषा मेरी मातृभाषा है।“
“ब्रजभाषा साहित्य पढ़ा है? कुछ याद है?”
“सर, मेरे दादा-परदादा ब्रजभाषा के कवि रहे हैं। उनकी कविताएं खूब पढ़ी हैं। “
“अच्छा, कुछ सुनाओ।“
माणिक ने अपने दादाजी का लिखा हुआ एक छंद सुना दिया। वाइस चांसलर साहब भी ब्रजभाषा के अच्छे पंडित थे और साहित्य में खूब रुचि रखते थे। उन्होने भी रसखान का एक छंद जवाब में सुना दिया। अब दोनों के बीच कुछ देर तक छंदों का आदान-प्रदान चलता रहा।
छंदों का सिलसिला थमा तो वे गंभीर स्वर में बोले,” बेटा, तुमने बारहवीं की परीक्षा किस स्कूल से पास की है?”
“सर, ‘किशोरी रमण इंटर कॉलेज’ से।“
“तुम्हारे पास बारहवीं की परीक्षा का कोई प्रमाण है? रोल नंबर या मार्क-शीट ?”
“ सर , है तो सही, पर यहाँ नहीं है?”
“ अखबार में परिणाम आया होगा, कोई कटिंग बगैरह...?”
“ जी सर, है तो सही, पर यहाँ नहीं ।”
“ तो बताओ हम कैसे मान लें कि तुमने बारहवीं की परीक्षा पास की है, दाखिला तो दूर की बात है।“
सुनते ही माणिक के भीतर जैसे बिजली कौंध गई थी। हृदयगति तीव्र हो गई थी। कन्हैया के चक्र की गति और भी तीव्र हो गई थी। माणिक उसी तीव्रता से बोला,”सर, मैं झूठ कभी नहीं बोलता।“
इस पर वाइस चांसलर साहब ने माणिक के चेहरे पर न जाने कौन-सी सच्चाई के दर्शन कर लिए थे कि उन्हें लगा कि इस बालक के शब्दों को किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। कुछ देर सोच कर बोले,” देखो बेटा, तुम जो कह रहे हो न इसी बात को स्टांप पेपर पर टाइप करा लाओ, इसे ऐफ़िडेविट कहते हैं । फिलहाल उसके आधार पर तुम्हारा दाखिला हो जाएगा। फिर जल्द से जल्द अपने घर से परिणाम मँगवा कर दफ्तर में जमा करा देना।ठीक है। अब तुम जाओ।“
वाइस चांसलर साहब ने घंटी बजाई, किसी को बुलाया और माणिक को उसके साथ भेज दिया। अगले दिन माणिक का दाखिला हो गया और उसकी पढ़ाई आरंभ हो गई। वह आज पहली बार बी.ए. हिन्दी की कक्षा में बैठकर आज़ादी को महसूस कर रहा था। वह आज़ादी को जी रहा था। वह ज्ञान की गंगा में गोते खाकर अज्ञानता से आज़ादी पाने चला था। अब वह आज़ाद था खूब पढ़ने के लिए, खूब ज्ञान पाने के लिए।
सच, कन्हैया साथ हो तो सब संभव हो जाता है.......सब।