बाऊजी ने कहा था-भाग ३१
बाऊजी ने कहा था-भाग ३१
मंझले भैया को बहिन के बारे में सब पता था क्योंकि उन्हीं का मौक़ा उसकी ससुराल में जाने का पड़ा था और वे वहॉं के सब हालात जानते थे।उन्हें पता था कि यह हर तरह से एक बेमेल रिश्ता था और डाईवोर्स इसका एकमात्र हल था। उन्होंने बहिन को कितनी ही बार समझाया कि यह रिंश्ता तोड़ दो, मेरे पास आ जाओ, अपनी पढ़ाई पूरी कर लो, कहीं कॉलेज में लेक्चरर बन जाओ। बेटे की भी परवरिश ठीक से करो। पर बहिन नहीं मानी। उनके अपने तर्क थे।
उनका कहना था-“बेटे को पिता से अलग कैसे कर दूँ। अभी वह बहुत छोटा है, एक डेढ़ साल का है, कुछ समझने लायक़ नहीं है।”
उनका यह भी कहना था कि “बाऊजी के विश्वास को कैसे तोड़ दूँ, अब जब वे नहीं रहे। उन्होंने कहा था- “पुत्री दोनों कुल को पवित्र करती है। मैंने सिर्फ़ लड़का देखा है, तुम दुःख मत मानना। ससुर को पिता और सास को मॉं समझना । देवरों और ननदों को भाई बहिन समझना, सबका ख़्याल रखना, मिल-जुलकर रहना।” बाऊजी की बात को मैंने स्वीकार किया था। अब जैसे भी हो, मुझे निभाना है। मैंने भगवान भरोसे सब छोड़ दिया है।”
बहिन की बात का भाई कोई उत्तर नहीं दे सके । वे चुप रह गये। समय बीतता रहा। बेटा धीरे धीरे बड़ा हो रहा था, समझदार हो रहा था। अब उसकी पढ़ाई शुरू कराने का समय आ रहा था। पर कहॉं करायें, यह समझ में नहीं आ रहा था। क्योंकि जहॉं पोस्टिंग थी, वहॉं अच्छे स्कूल नहीं थे, बाहर बोर्डिंग में रखकर पढ़ाना बहुत खर्चीला था। पर नियति कुछ और ही खेल खेल रही थी।
मुन्ना एक शाम बाहर से खेलकर आया, और मॉं की गोद में बैठ गया। मॉं ने प्यार से गोद में बैठाया और पूछा- “आज जल्दी कैसे लौट आये ? क्या खेल में मन नहीं लगा।”
मुन्ना कुछ बोला नहीं। मॉं को मुन्ने का हाथ कुछ गर्म लगा। माथा छूकर देखा गर्म था। मॉं चौंकी, कहा-“ मुन्ना! तुम्हें तो बुख़ार है !”
मुन्ना बोला-“ सिर दर्द कर रहा है”।
मॉं ने उसे गोद में लेकर बिस्तरे पर लिटा दिया। मुन्ने का बुख़ार तेज़ी से बढ़ता गया, और डाक्टर के आने से पहिले मुन्ना कहीं नहीं था। वह यह लोक छोड़कर जा चुका था बिना किसी को कोई कष्ट दिये। मॉं सिर पर गीली पट्टी रखती और लोरी सुनाती रह गयी, मुन्ना जा चुका था। उसे किस तरह का बुख़ार था, कुछ पता नहीं चला।
जीजी का जो एक सहारा था, वह भी टूट गया । भगवान से कुछ फ़रियाद भी नहीं कर सकी। यही सोचा कि मुन्ना इस घर के लायक़ नहीं था, यहॉं उसे कोई सुख नहीं मिला। गलती से यहॉं आ गया था। भगवान ने अपनी चीज़ वापिस ले ली।
क जीजी के मन पर थपेड़े पर थपेड़े लगते जा रहे थे। सुख तो उनसे बहुत दूर था। वे किस मिट्टी की बनी थीं, वही जानें।
मंझले भैया ने बहुत कोशिश की, कि वे डाइवोर्स लेकर उनके पास आ जायें, अब तो मुन्ना भी नहीं था। पर जीजी तैयार नहीं हुईं। उन्हें किसी पर बोझ बनना गवारा नहीं था। शुरु शुरु में तो सब ठीक लगता है, पर समय बीतने पर बोझा लगने लगता है।
समय तो किसी के लिये रुकता नहीं। अपनी गति से बीतता जाता है। कुछ ढह जाता है, कुछ नया बन जाता है। विशाल सृष्टि में कब क्या हो जाये क्या पता चलता है। मंझले भैया जो जीजी का सब तरह ख़्याल रखते थे और उनको अपने उन्हें भी पास बुलाना चाहते थे, खुद भगवान के प्यारे हो गये। किसी को इसकी भनक तक नहीं थी। वे सही सलामत थे। पर एक दिन सुबह ही सुबह चार बजे उन्हें हार्ट अटैक पड़ा और वे चल बसे।
जीजी ने अपनी बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता से पति को तलाक़ देकर भैया के पास जाने का अनुरोध ठुकरा दिया था। यदि वे चली जातीं, तो आज कहॉं होतीं ? अब कम से कम एक पति का घर तो था, अपना कहने को, जहॉं वे दुःखम् सुखम् रह तो रहीं थीं और हक़ से रह रहीं थीं। वहॉं किसी का अहसान नहीं था। यहॉं रहकर वे दूसरों की सहायता भी ज़रूरत पड़ने पर कर सकती थीं।