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chandraprabha kumar

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अलका पुरी और यक्ष की कथा मेघदूत में

अलका पुरी और यक्ष की कथा मेघदूत में

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  ‘मेघदूत ‘ में कालिदास ने अलका नगरी का वर्णन बड़ा उत्कृष्ट किया है, और ऐसा करना स्वाभाविक भी था। क्योंकि एक तो अलका राजराज कुबेर की नगरी है, वस्वौकसारा है- जिसके भवनों में वसु भरे हुए हैं, और पुनः ऐसी महा समृद्धिमयी पुरी के एक घर में प्रोषित यक्ष की गृहिणी है जिसके मद- विलुलित अपांगों में वह अपनी समस्त सुखाशाओं को पीछे छोड़ आया है। 

   कान्ता विप्रयुक्त किसी यक्ष ने स्वामी के श्राप के कारण अस्तंगमित महिमा हो राम गिरि के आश्रमों में निवास किया। आषाढ़ के प्रथम दिवस उसने वप्रक्रीड़ापरिणत गज प्रेक्षणीय मेघ को देखा और उसकी अलकापुरी स्थित अपनी प्रिया की याद तीव्र हो उठी। कामार्त्त यक्ष ने, मेघ को, अलका पुरी स्थित अपने भार्या के पास संदेश पहुँचाने के लिए दूत कल्पित किया। यक्ष ने मेघ को अलका तक का मार्ग बताया ।यह मार्ग मेघदूत में अति रमणीय रूप से कहा गया है। यक्ष कामी है, अतः अलकापुरी का वर्णन करते हुए उसकी यह काम भावना चरम सीमा पर पहुँच जाती है ।अलका नगरी उसको प्रणयी रूप कैलास के उत्संग में बैठी हुई दिख पड़ती है, जिसका गंगा रूपी श्वेत दुकूल सरक गया है। 

  अलका के प्रासाद सप्तभूमिक हैं ( उच्चैर्विमाना)। पावस ऋतु में उसके ऊँचे भवनों पर जब सघन जलधर छा जाते हैं, तब जल की झड़ी से वह ऐसी सुहावनी लगती है ,जैसे मोतियों के जालों से गुँथे हुए घुंघराले केशों वाली कोई कामिनी हो।

     अलका में मेघ ,विद्युत् ,पूर्ण चंद्र ,गंधवाही पवन,खग, मृग, उपवन, वसन्त ,बावड़ी, ललित वनितादि अनेक उद्दीपन सामग्री हैं। अलका के मणिजटित फर्शों से युक्त प्रासादों के अग्रशिखर आकाश को चूमने वाले हैं (अभ्रंलिहाग्राः)।अलका के देवगृहों में सुखलक्ष्मी सुभग वनिताओं के रूप में निवास करती है।

      वहां अलका की वधुयें षड् ऋतुओं के फूलों से अपना शृंगार करती हैं। शरद में कमल उनके हाथों के लीलारविन्द हैं। हेमंत में बालमुकुंद उनकी घुंघराली अलकों में गूँथे जाते हैं।शिशिर में लोध्र पुष्पों का पीला पराग वे मुख की शोभा के लिए लगाती हैं। वसन्त में वे कुरबक के नवीन पुष्पों से अपना जूड़ा सजाती हैं। ग्रीष्म में शिरीष के कुसुमों को कर्णावतंस के रूप में धारण करती हैं और जलदागम पर खिलने वाले कदम्ब पुष्पों को सीमंत में सजाती हैं। 

       अलका में पादप सब ऋतुओं में पुष्पों से युक्त और सौरभभ्रान्तमूढ़ भ्रमरों से मुखरित रहते हैं। सरोवर सदा कमलों से युक्त और हंसों की पंक्तियों से व्याप्त रहते हैं। सदा चमकती हुई कलापों वाले भवनमयूर कूजने के लिए उत्सुक रहते हैं।और नित्यज्योत्स्नायुक्त रात्रियॉं तमरहित होने से रम्य होती हैं। 

      अलका में सब और प्रसन्नता का साम्राज्य छाया रहता है ।वहाँ नयनों में अश्रु केवल आनंद के कारण आते हैं। कुसुमायुध से उत्पन्न ताप के अतिरिक्त अन्य कोई ताप नहीं होता। और प्रणय कलह को छोड़कर अन्य किसी प्रकार का कलह नहीं होता। तथा यौवन के अतिरिक्त अन्य कोई वय नहीं होती। वहॉं जिस समय जलद समान गंभीर ध्वनिवाले पुष्कर वाद्य मन्द -मन्द बजते हैं ,उस समय स्फटिक शिलाओं से निर्मित हर्म्यस्थलों पर बैठे हुए यक्ष वरवर्णिनी स्त्रियों के साथ कल्पवृक्ष से उत्पन्न हुई रतिफल नाम की मदिरा को पीते हैं ( आसेवन्ते मधु रतिफलं कल्पवृक्ष प्रसूतं)। अलका में अमरप्रार्थिता सुंदरी बालाएँ सुवर्ण की सिकता में मणि छिपाकर गुप्तमणि नामक खेल खेलती हैं। कुमारियों की लीला के इस चारू विक्रीड़न में कितना उद्दीपन है इसे अमरगण ही जानते हैं। 

      अलका के भवन सदैव प्रकाश देने वाली दीपकतुल्य मणियों से प्रकाशित रहते हैं। अलका में भी जालमार्गों से धुआं निकलता है और वह भी मेघों की ही रक्षा करने के काम में आता है।

   पहाड़ पर मेघ घरों में घुसकर वहाँ की वस्तुओं को भिगो देते हैं , यह साधारण बात है। अलका में भी वे विमानाग्रभूमि में अप्रतिहत गति से जाने वाले वायु की प्रेरणा से प्रवेश पाकर भवनों की भीति पर खिचीं हुई चित्रकारी को बिगाड़ देते हैं। इस अपराध से डरे हुए मेघ भागना चाहते हैं, उनको रास्ता मिलता है जाल -मार्गों से। पर अपराधी मुँह छिपाकर भागना चाहता है ,जिससे कोई उसे जान न पाने। धूम इसमें मेघों की सहायता करता है । वे जर्जर होकर धुएं की तरह ही गवाक्षों से निकलते हैं, मानो धूम के भ्रम से लोग उन्हें नहीं पहिचान पाते।

   अलका में सुरत- खिन्न अबलाओं की श्रान्ति हरने की सामग्री चंद्रकांत मणियॉं हैं। रात्रि के समय जब पूर्ण चन्द्र तन्तुजालों से छत में लटकाई हुई मणियों को अपनी किरणों से छूता है तब वे द्रवित होकर रस- स्रवण करने लगती हैं। जो स्त्रियॉं प्रियतम के निधुवन से निष्प्राणता रूप ग्लानि अनुभव कर रही हैं, उनके उस अनुत्साह को दूर करने वाली चन्द्रकान्त मणियॉं हैं। कला, सम्पत्ति और शृंगार का अत्यंत विलक्षण समवाय उन भवनों में है।

  जो कभी क्षय को प्राप्त नहीं होती ऐसी निधियॉं जिनके घरों में हैं,वे कामी यक्ष वारांगनाओं को साथ ले कुबेर के वैभ्राज नामक उपवन में विहार करते हैं। अलका धनपति की नगरी है। वहाँ की पहली विशेषता चरम कोटि का अर्थस्वातन्त्र्य है। 

     अलका की कामिनियॉं रात्रि को अभिसार करते समय बड़े वेग से चलती हैं ,शीघ्रता में उनके पैर डगमग पड़ते हैं। इस कारण उनके कानों में खोंसे हुए सुवर्ण- कमल खिसक पड़ते हैं, कहीं केशपाश में गूँथे हुए मन्दार पुष्प और मौक्तिक जाल गिर जाते हैं, ये चिह्न प्रातःकाल के समय अभिसारिकाओं के नैश मार्ग की सूचना देते हैं। 

            अलका अनन्त संपत्ति की पुरी है, फिर भी उसमें कल्पवृक्ष हैं। ऐसे देश के वासी जहाँ अमरता नित्य निवास करती है ,जहाँ नवों निधियों का कोई पूछने वाला नहीं, कल्प वृक्ष से किस सुख और अभ्युदय की कामना करने जाएं ? कवि की कल्पना के लिए भी यह परीक्षा का स्थान है कि वह अलका सदृश निज निर्मित लोक में कल्पवृक्ष से क्या काम ले। अन्ततः उसने कल्पवृक्ष के लिये यह उपयोग ढूँढा— 

  “अतः सूते सकलमबला मंडनं कल्पवृक्षः।”

    अर्थात् अलका में एक कल्पवृक्ष ही अबलाओं के प्रसाधन की समस्त सामग्री यथा- धारण करने के लिए सुंदर वस्त्र ,नयनों को विलास की शिक्षा देने में चतुर मधु, अलंकरण के लिए पुष्प-किसलय एवं आभरण और चरणों कमलों में लगाने योग्य लाक्षा रस - उत्पन्न कर देता है। अमर सौंदर्य के देश में स्त्रियों को कोई कामना होती है तो वह केवल मंडल सामग्री की। जैसा वे मंडन चाहती हैं ,कल्पवृक्ष उन्हें दे देता है। यही कल्पवृक्ष की सार्थकता है। कामिनियों को सुभंगकरण के लिये अन्यत्र नहीं जाना पड़ता। 

  वहॉं अलका में कुबेर के मित्र शिव जी को साक्षात् बसता हुआ जानकर कामदेव भौरों की प्रत्यंचा वाले अपने धनुष पर बाण चढ़ाने से प्रायः डरता है। कामी जनों को जीतने का उसका मनोरथ तो नागरी स्त्रियों की लीलाओं से ही पूरा हो जाता है,जब वे भ्रूभंगसहित अपने कटाक्ष छोड़ती हैं, जो कामी जनों में अमोघ लक्ष्य पर बैठते है। उनको विभ्रम की शिक्षा देने वाला ‘रतिफल ‘ नाम का मधु है। 

   कुबेर की नगरी अलका और विरही यक्ष का वर्णन कवि ने सुचारुतया किया है। अलका कितनी सुन्दर है इसका वर्णन करने में कालिदास ने अपूर्व सामर्थ्य प्रदर्शित की है। रामगिरि में निवास कर रहे विरही यक्ष ने अलकापुरी का वर्णन कर और वहाँ का मार्ग मेघ को बताकर मेघ द्वारा अपने भाव पावस ऋतु में अपनी प्रिया तक अलकापुरी में पहुँचाये। 

    


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