आइहैं पुनः बसंत ऋतु

आइहैं पुनः बसंत ऋतु

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समय सदा ही परिवर्तनशील है। यह एक समान कभी नहीं रहता। जीवन में कभी सुख कभी दुख, कभी सर्दी कभी गर्मी, कभी पतझड़ कभी बसंत, यह बराबर लगा ही रहता है। प्रकृति का ऐसा ही नियम है।

जब ग्रीष्म का आगमन हुआ, भगवान भास्कर की तब तक रहे धरती को जलाने लगीं। नदी, ताल तलैया सभी सूखने लगे। घास पात पेड़-पौधे सभी मुरझाने लगे। लू की भीषण लपटें बदन को झुलसा ने लगी।

गर्मी के मारे सभी व्याकुल हो उठे। पशु सघन झाड़ियों एवं वृक्षों के नीचे शरण लेने लगे। पंछी गढ़ त्रांणा पाने के लिए अपने अपने घोंसलों में छिपने लगे।सभी मनुष्य किवाड़ एवं खिड़कियां बंद कर अपने-अपने घरों में बंद होने लगे। यात्रियों का आवागमन बंद सा हो गया। गर्मी भर सभी प्राणियों की ऐसी ही दशा रही।

धीरे-धीरे आबो हवा बदलने लगी। गगन मंडल पर छिटपुट घटाए हवा के झकोरों से इधर उधर भागती नजर आने लगीं। हवा का प्रबल वेग से धरती के धूल कणों को ऊपर उठा आकाश मंडल को अंधकाराच्छन्न कर सूर्य किरणों को प्रखरता को भी धूमिल करने लगा। देखते-देखते काली घटाओं का जमघट सा लग गया। बादलों के समूह ने सूर्य को ढक लिया रह-रहकर बिजली भी चमकने लगी। हवा शांत हो गई और जल की छोटी-छोटी बूंदें पृथ्वी पर रिमझिम कर बरसने लगीं। देखते-देखते मूसलाधार वर्षा होने लगी। छोटे बड़े गड्ढे भी भरने लगे और नदी नाले उमड़ चले। धरती का सारा तपन शांत हो गया। घास पात उग आये। पेड़ पौधों की हरियाली बन गई। थोड़े ही दिनों में बरसात के कीचड़ पानी से लोग उबने लगे। धीरे-धीरे वर्षा ऋतु का अंत हो गया। अब हुआ शरद ऋतु का आगमन। अब आकाश स्वच्छ होने लगा और धरती कीचड़ पानी से रहित हो गई। जलवायु भी समता में आ गई।

क्रमशः जाड़े का प्रारंभ हुआ। लोग ठंड से बचने का उपाय करने लगे। धनी मानी अपने अंगों को कंबल रजाई से ढाँपने लगे और निर्धन गरीब सिर्फ एक पतली धोती अथवा फटी गुदरी ओढ़ कर ही रात काटने लगे। अनेक बेघर बार के भिखमंगे, अपने सारे खुले अंगों को समेटे, फुटपाथों पर ही बैठे-बैठे रात बिताने लगे। यों यह जाड़े की रातें किसी के लिए सुखद और किसी के लिए अत्यंत दुखद भी रहीं। किंतु सभी को धैर्य रहा, सभी आशान्वित रहे कि 1 दिन सुखद बसंत भी अवश्य आएगा, आइहैं पुनः वसंत ऋतु,।


अब जाड़े का भी अंत और पतझड़ का आरंभ हो गया। वृक्ष और तालाबों की पत्तियां पक पक कर गिरने लगीं। उसमें से सुकोमल नई -नई पत्तियां और टहनियां भी फिर निकलने लगी, मानो प्रकृति देवी अपने पुराने वस्त्रों को उतार अब नया वस्त्र पहनने जा रही हो। अब देखते देखते लता -झाड़ियां पेड़ -पौधे ,रंग-बिरंगे नए नए वस्त्रों ,नए-नए चमक-दमक से, शोभित होने लगे। ऐसा लगने लगा कि प्रकृति देवी भी अपनी सज-धज से ऋतुराज वसंत की अगवानी के लिए तैयारी कर रही है।

अंत में खुशी व आनंद लिए अपने पूरे साज बाज के साथ सभी ऋतुओं का राजा यह सुंदर बसंत आ ही गया। इसके आते ही दसों दिशाएं खुशहाली से भर गई। तमाम प्रेम की वर्षा होने लगी। अब जिधर देखिए,आनंद ही आनंद है। जिधर भी दृष्टि जाती है, केवल हरियाली ही हरियाली दिखती है। लगता है कोई श्रेष्ठ कुलांगना, अपनी शील व लज्जा को ढके, एक नवीन सुंदर साड़ी पहने, शान्त व गंभीर मुद्रा में बैठी, किसी की प्रतीक्षा में निमग्न है। क्यारियों में रंग-बिरंगे फूल खिले हैं, जिनकी सुगंधी सभी को प्रफुल्लित कर रही है। सभी प्रेम की मस्ती में झूम रहे हैं और परस्पर गले से गला मिला खुशी की गुलालें एक दूसरे पर छिड़क छिड़क कर आनंदित हो रहे हैं। सभी पेड़ पौधे, वृक्ष व लताएं, फूलों से लदे, शोभित हो रहे हैं। प्रकृति की अनुपम छटा को निरख, मधुमाती कोयलिया कुहुँ -कुहुँ, की बोल ,बोल रही है। प्रेम की मस्ती में पागल बनी पपीहा भी पी कहां, पी कहां, की रट लगा रही है बसंत की बहार में सभी अपने सारे तपन, अपने सभी दुख दर्द को भुला रहे हैं। सभी अपने अंदर की कुत्सित भावनाओं की, परस्पर के ईर्ष्या- द्वेष को, प्रेम की पिचकारी से धो -धो कर एक हो रहे हैं। अब ना कोई बड़ा है ना छोटा ,ना कोई धनी है ना कोई निर्धन। सभी एक रस हो रहे हैं। कितनी खुशी होती है, यदि हमारे जीवन का यह सुखद वसंत सदा सर्वदा कायम रहता। कितना आनंद होता, जब प्रेम आवेश में हमारा यह प्राण-पपीहा अपने प्रियतम की एक सुरा रट लगाते कभी नहीं थकता।

"पतझड़, सावन, बसन्त ,बहार --एक बरस के मौसम चार ।

गिले सिकवे भुलाकर, गले से गला मिलाओ बारम्बार।।



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