ज़िन्दगी
ज़िन्दगी
जि़न्दगी ऐ जि़न्दगी
तू कितनी नख़रीली सी
होती जा रही है
एक अल्हड़ और कमसिन
बावली महबूबा की सी
ओढ़ कर चेहरे पे सुर्खी़
लाज के गोटों से लिप्टी
चाँद,तारों से टंकी
इक ओढ़नी सी
सर से लेकर पाँव तक
तू ढंक चुकी है
है मगर तुझको पता
ये तेरी मिट्टी
जिससे तू
खु़शरंग हाथों से गढी़
गूंधी गई है
उसमें तेरी फितरतों की
सारी रुहानी वजह
डाली गई है
आ तू अपनी रुहे-रंग में
ओढ़नी की ओट से
ना झांक ऐसे
देख तो खुलकर सही
कि तू कहाँ थी
अब कहाँ है
याद आ ही जायेगा
झरनों से झरती
और सहरा तक सुलगती
पस्ती से ऊँचाईयों तक
का सफ़र
सब भूल कर
चाँद तारों की दमक
रात के दामन को
रोशन करती तू
सजती और सँवरती तू
मान जा
इक मशविरा मेरा अभी
अब तलक आखों की ये
रोशन चमक
ज़िन्दा है,आबाद है
रुहे फ़लक और मुझ तलक
ज़िन्दगी ऐ ज़िन्दगी
तुझसे ही मैं रु-ब-रु
हर तरफ़ इक जुस्तजू
मैं ही मैं या तू ही तू
इक तमाशा हाय हू